फरवरी 2015 में मेरे अस्सी वर्षीय दादा जी मुम्बई आये थे। कृतार्थ हूँ कि मेरे निलय पर उनके पूण्य चरण पड़ चुके हैं। काफी नज़दीकी होने के बावजूद पहले नौकरी के कारण और फिर विवाहोपरांत दादा जी से मिलना बेहद कम हो गया । जीवन को बेवजह ज़रूरतों ने घेर लिया और थोड़ी नई नौकरी की मशगूलियत पर 2008 – 2009 में मेरी स्वर्गीय दादी कहती रहीं “बेटा तुम दुर्लभ हो गईं”। कचोट आज तक है कि मुझे तब उनका गलता शरीर नहीं दिखा, कैसे अब तक पता नही। इस हिस्से से जो कुछ निकला उसे मैंने समय-समय पर शब्द का जामा पहनाया, शायद यही पश्चाताप है।

उस साल जब दादा जी आये तब समय बहुत भावुक था पर न उन्होंने खुद को भावुक होने की इजाज़त दी ना मेरी इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी की नौकरी ने मुझको। पर कवियों और लेखकों की कलम पर खुद उनका भी बस नहीं होता वो एक अलग प्राण होती हैं और हमारे हाथ बस लिखने का माध्यम तो उस दिन भी मेरे हाथों के माध्यम से विचलित कलम बन प्राण बोली वो प्रस्तुत कविता एक समय की बात है बन कर निकली:

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