मेरी माँ मुझे बाबा नागार्जुन सरीखी हस्तियों से मिलवाती थीं
घर में स्वामि विवेकानन्द की तस्वीर सजाती थी
मेरी दादी इंदिरा नेहरू और गाँधी से मेरी अ ब स
शुरू कराती थी
परिवेश अब बदल गया है
या वो लोग अब नहीं बन रहे?
क्या चरित्र निर्माण व्यक्तिगत न रह कर
समाज की समस्या रहे?
कल तक यदि मुझसे समाज बनता था
तो आज मैं समाज से कैसे बनने लगी
मेरे बच्चों के लिए क्या अच्छा रहेगा
मैं सरकार से क्यों समझने लगी
क्यो थोपती हूँ वो विधाएं
जो निर्माणाधीन बचपन गिराएं
क्या कुछ कमी रह गयी
क्यों बच्ची बिना कुछ कहे चली गयी
क्यों मेरे घर में आदर्श की बातें जन्म घुट्टी भर रह गईं
क्यों नहीं दीवार पर एक कील काम की ठोकी गयी?
यू तो सज्जा बहुत भाई
पर कुछ न तुम्हारे काम आई ।

#प्रज्ञा 30 जून

कक्षा नौ की उस बच्ची को समर्पित जिसे मैं नहीं जानती पर सोचती हूँ जानती तो क्या कुछ कर पाती।
ईश्वर तुम्हारी आत्मा को शांति दे।