तब मेरे पास स्मार्ट फोन नहीं था, किसी के पास नहीं था। कैमरा कोडक का था। जिसमें रील तब ही भरते थे जब कहीं बाहर जाते थे या किसी का जन्मदिन , कोई अन्य पार्टी होती थी। डिजिकैम भी दादी माँ के रहते आ गया था। लेकिन हमारे पास नहीं आया था ।मैंने सोचा भी नहीं कभी । वो कोई कमी थोड़े थी।

मैं तो गहना बेटा थी, दादी माँ फटाफट बाड़ी से जाकर भिंडी तोड़ती थी, चट से कड़ाही में भूज कर गरम रोटी के साथ देती थी। भिंडी पकी भी रहती थी, हरी भी रहती थी। किसी को दिखा नहीं सकती रेटिना में है, निकालने की तकनीक डेवेलप होगी तो देखूंगी।

साबूदाना की खीर मंगल के फलाहार में खाती थी दादीमाँ। एक गोल स्टील के प्लेट में, जिसके कोर मुड़े हुए थे, पसार कर बजरंगबली के सामने पूजा घर में रख देती थे। उस सफेद खीर थाल के बीच में एक गुलाब की पंखुड़ी रखी जाती थी, या नहीं तो अड़हुल का एक पेटल एकदम बीचों बीच।

सफ़ेद साबूदाने खीर की थाल, एक लाल पंखुड़ी बीच में बड़ा सुंदर लगता था। खाने का मन नहीं करता था।

“चुन्नी,.. जा …खा जाएं इसको, देखो तो…कितना बढियाँ लग रहा है”।

“हे गे कथि भेलौ ये, ओजिया नै , खो, थीसिस नै बनाभी ओकर।’ (पूर्णिया की मैथिली)

बोलकर ठहाका लगाते हुए तुलसी में पानी डालने के तुरंत बाद दादीमाँ एक सवा बजे तक खाने पर बैठती थी।

फिर प्रसाद के हिसाब से, उसके बाद पेट भरने के हिसाब से साबूदाना खीर चट हो जाता था।

आज फलाहार के लिए फिर साबूदाना खीर बना। अराधना, अनार छील कर अलग रख चुकी है। पेशेंस वाला काम है ,मेरी भांजी में कूट कूट कर भर चुका है।

अनार, गुलाब की पंखुड़ियों के मुकाबले तो नहीं ठहरे पर खीर के बीचों बीच लाल आभा देकर दादी माँ के मंगल का व्रत याद दिला गए।

मैं सोचने लगी काश ये फोन तब होता ।

हाँ तो?

देखते ना , याद करते, अच्छा लगता।

कुछ भी नहीं करती , जैसे बाकी सब ठो कमप्यूटर आ मोबाइल में रखी हो जोग कर वैसे ही पड़ा रहता।
कितना देखती हो जाकर?

अच्छा ठीक है , अब कुछ छाँट कर डेवलप करते हैं।

ये साबूदाना का खीर में एडिट कर के पत्ता डाल के देखोगी क्या?

रिक्रिएट ?

तो और क्या?

ना। कुछ अनुभव क्षणभंगुर ही सुन्दर होते हैं। उनकी महत्ता बनी रहती है। जैसे दादी माँ की। एक काश की लिपस्टिक आईना देखते हुए हर दिन लग जाती है, इसको ऐसे ही रहना है।

#प्रज्ञा 2 सितम्बर 2018

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