अरे सर !जिंदगी भर थोड़े न जीना था,
जितनी जिंदगी थी उतना ही जीना था
इसलिए रंजिश भुला दी
और आगे बढ़ गए।
आप कहते हैं
इनको फरक नहीं पड़ता
फरक तो इतना पड़ा कि
भाईसाहब दार्शनिक बन गए!
बहता बादल, सूखे पत्ते
और सड़क के पत्थर पे भी
कविता कर गए।
गहरी सांस लेकर घोल देने
की आदत हो गई
जो नहीं घुला
उसमे डॉक्टरी ही गयी।
एक हाथ की दूरी पर बैठे दोस्त
कई बार बुलाते रहे
और वो अपनी आँखों को
किसी शून्य में टिका के रहे
मन मैराथन दौड़ रहा है
जब तक साँस नहीं टिकती
श्रावणी!
जो आवाज़ कानों तक
गयी ही नहीं
उस पर कौन सी चिड़ियाँ उड़ती?
-प्रज्ञा 13 जनवरी 2017