आज मैंने काव्य की भाषा में एक नई बात जानी , “क्षणिका” । अभी परसों ही अनुपम चितकारा जी ने मुझे “गूँज” नाम के नए वाट्सअप ग्रूप में शामिल किया ।

अनुपम मेरी दोस्त हैं और इग्नू से जुड़ने के बाद इनसे जान पहचान हुई।हिंदी साहित्य में मेरी रुचि देखते हुए इस ग्रुप में शामिल होने का सुझाव दिया।

पगलाई सोशल मीडिया के दौर में “गूंज” की चालक पद्धति बहुत अनुशासित है।

समूह के नियमों में आज के लिए लिखा है कि “बुधवार के दिन दिए गए शब्द पर क्षणिका गढ़ने हैं। ”

मैंने सादा तरीके से बिना गूगल किये दोस्ती को तरजीह दी और अनुपम से पूछ दिया कि यार ये क्षणिका क्या है?

अनुपम मुझे क्षणिका के अनुपम ज्ञान की तरफ ले गयीं और विकिपीडिया के पेज से जनकारी दिलाई ।

क्षणिका साहित्य की एक विधा है।

“क्षण की अनुभूति को चुटीले शब्दों में पिरोकर परोसना ही क्षणिका होती है। अर्थात् मन में उपजे गहन विचार को थोड़े से शब्दों में इस प्रकार बाँधना कि कलम से निकले हुए शब्द सीधे पाठक के हृदय में उतर जाये।” मगर शब्द धारदार होने चाहिए। तभी क्षणिका सार्थक होगी अन्यथा नहीं।

इसके बारे में और अधिक हम इस विकिपीडिया पृष्ठ से पढ़ सकते हैं:

विकिपीडिया पर क्षणिका की जानकारी

गूंज पर आज का शब्द है “गुलाब” और उसपर मैंने जो क्षणिका लिखी वह थी:

घुटने पर बैठ ऐसे छबीले सा
वो रोज़ मुझको मुझसे माँगता है
‌समाज के खाँचे में फिट
मैं एक घूँट में कैसे बताऊँ
‌गुलाब का काँटा चुभता है

फिर एक जानकार मित्र ने इसे थोड़ा धारदार रखने का सुझाव देने के साथ कुछ त्रुटि सुधार बताया , फिर फाइनल रूप में नीचे लिखी क्षणिका मेरी आज की कृति रही।

घुटने पर बैठ छबीले सा,
रोज़ मुझको मुझसे माँगता है
‌समाज के सांचे में बसी
मैं एक घूँट में कैसे बताऊँ
‌गुलाब का काँटा चुभता है।

प्रज्ञा

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