मैंने जीवन में तीस एक बसंत देखें हैं और वे सब जैसे बस होली का एक दिन हो कर रह गए थे। मैंने देखा ही नहीं की बसंत में फूल खिलते हैं , कितनी तरह के खिलते हैं, सबकी बनावट, सबका रंग सौंदर्य क्या खूब होता है, सभी के पास अपनी एक खासियत होती है। आस-पास खिलते , फलते पेड़ पौधों को देखना तो हुआ था पर इस तरह बसंत महसूस नहीं हुआ था जैसे साल 2019 से होने लगा।
किन्चित यह परिवर्तन साहित्य की पढ़ाई शुरू करने से आया है। साहित्य और कला हमारे आस-पास होती घटनाओं के होने के अर्थ समझने की क्षमता देते हैं। गूगल के अथाह सागर में हिंदी में पढ़ना क्या चाहिए, किसे पढ़ना चाहिए की एक छोर पकड़ने के लिए मैंने इग्नू में नामांकन लिया और दिए हुए मटेरिअल की पढ़ाई करने से ही शुरू किया है।
विज्ञान के बाद साहित्य पढ़ने से पता लगता है कि विज्ञान बिना साहित्य की पढ़ाई के अधूरा है। वे रंग, खुशबुएँ, पद्धतियां सब विज्ञान हैं फिर भी कवि की कल्पना क्यों बन जाते हैं। मिट्टी की खुशबू रसायन है , फिर मस्तिष्क के कौन से तार से जुड़ कर रचनात्मक एक छंद हो जाता है । क्यों लिखे जाते हैं बसंत पर ही इतने गीत, नाद , काव्य, कहानियां जो बस एक मौसम मात्र होता है। ये विभाग इतने भी पृथक नहीं जितना की एक प्रचलित विचारधारा में वे बना दिये जाते हैं। ये प्रचलित विचारधाराएं भेड़ चाल बन कर विविधता को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करती हैं। पन्द्रह वर्ष तक की आयु के बच्चे आमतौर पर इसका शिकार होकर विचारशून्य रह जाते हैं। फिर उन्हें अक्सर ये नहीं पता होता की जीवन में आगे किस कैरियर का चयन करना है। साहित्य की पढ़ाई प्रश्न करने की क्षमता प्रबल करती है। अपने देश , अपनी भाषा और भाषागत इतिहास जानने से “हम कौन थे” का ज्ञान गर्वान्वित करता है । अपने परिवेश से उतपन्न उत्तिष्ठ भावनाओं से अविष्कार की प्रवृत्ति फलित होती है और नकल कर के , काम चलाऊ काम करके सिर्फ दौड़ में टिके रहने की आवश्यकता जाती रहती है।
हाल ही में मैं विविध भारती पर बोकारो से पढ़े भारत के प्रसिद्ध भू वैज्ञानिक विक्रम विशाल जी का इंटरव्यू सुन रही थी। वे अच्छा गाते हैं,उन्होंने जो गीत गाया वो था “ज़िन्दगी कैसी है पहेली हाय” उन्होंने अपना संगीत जीवन्त रखा है। उन्होंने बताया डॉ कलाम बेहद सुंदर वीणा वादन करते थे , जाहिर है वे सरस्वती के वरद पुत्र भी तो थे।
(एक मुसलमान को सरस्वती का वरद पुत्र कहने से यही समझना चाहिए की वास्तव में धर्म भी केवल जीविकोपार्जन का साधन मात्र है कुछ इसमें रूढ़ि हो जाना व्यर्थ है, ज्ञान का संसार अनंत है ।)इसी तरह विक्रम विशाल जी ने विज्ञान और अनुसंधान के अन्य क्षेत्रों से जुड़ी हस्तियों के बारे में बताया जो कला साहित्य के क्षेत्रों में पारंगत हैं। उन्होंने अपने इंटरव्यू में इस बात पर बल दिया की विज्ञान से जुड़े लोग वास्तव में समाज से कितना अधिक जुड़े हैं और कला साहित्य से कितना प्रेम रखते है क्योंकि शोध करना, प्रश्न करना भी रचनात्मक होना है।
कला और साहित्य को वैज्ञानिक पद्धति से अलग कर देने से रूढ़ियों के पोषक जन्म लेते हैं। कला , साहित्य और विज्ञान रूढ़ियों में नहीं बसते वे निरन्तरता के सहपाठी हैं, वे स्वतन्त्र सोच की खाद में स्वस्थ उगते हैं।
जीवन वहीं है जहाँ नदियाँ बहती गयीं हैं ।
कितना प्यारा है बसन्त,
हरे पत्ते, पेड़ की डालों और
खेतों से आती
कोयल की कुहूक,
हरे सब्ज़बाग,
सरसों के खतों पर बनती अगणित कविताएं
कविताओं पर पड़ी ओस की बूंदें
हल्की शाम के साथ
टहलते लोग
हाथ में हाथ
मौसम का नर्म मिजाज़
और होली के बाद
तुम्हारा लेना प्रस्थान
अगले बरस फिर आना बसन्त।
प्रज्ञा
कोयल की कूक वासन्ती धुप प्रकृति का रूप तीनों का संगम ।वाह
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