2008 में मुंबई आने के बाद जिन नए मित्रों से समय ने परिचय कराया उनमें एक नाम रहा श्रुति चित्रांशी का। हमने तीन साल साथ काम किया था। कच्ची परिवक्वता के दिनों की मित्रता में अलग खुशबू होती है, भिनी-भिनी सी कभी तो है भी की नहीं पता नहीं चलता कभी हल्के से अच्छा महसूस होता है।
कॉलेज से निकलते ही हम न तो समझदार होते हैं और न ही हमें ये पता है कि हम पोटेंशियल नालायक हरकत कर बैठने में अभी समर्थ हैं। ऐसे में जो दोस्त आपको झेलते हैं औऱ हंसकर साथ रह जाते हैं फिर उनसे लम्बी जान पहचान चल जाती है।

उज्जैन की रहने वाली श्रुति से भी अब मेरी बारह सालों की जान पहचान हो जाएगी।

आजकल श्रुति अपनी बेटी और पति के साथ थाईलैंड में रहती है। 2009-10 के साथ के दिनों में उससे कहे थे की उज्जैन जाएँगे तो तुम्हारे घर ज़रूर आयेंगे। तब ठीक तरह ये नहीं पता था कि भई उज्जैन जायेंगे क्यों। उन दिनों एक एड प्रचलित था एम पी टूरिज़्म का “रंग है रंग है रंग है , सौ तरह के रंग हैं…. महाकाल की पूजा सुख न कोई दूजा” इसकी धुन, बोल और चित्रांकन बहरीन है, उसमें एक तरह की ताकत है । गुलाल के रंग उड़ते जाते हैं और महाकाल शिव की भव्य आभा दिखाई जाती है। उसमें गजब का आकर्षण था। फिर श्रुति का घर उज्जैन में है महाकाल उज्जैन में है इसी तरह दोनी बातें तारतम्यता में याद रहीं।

नाना खेड़ा बस स्टॉप के पास श्रुति के मायके गई ।
अंकल आंटी की जो छवि उसने अपनी बातों में हमेशा साझा की थी वे उससे भी ज़्यादा प्यारे मम्मी पापा हैं। श्रुति का सन्तुलित स्वभाव , सौंदर्य , धैर्य , कलात्मकता और हँसता खिलखिलाता मस्ती करने वाले तेज़ दिमाग के जनक जननी के साथ हमने कुछ घन्टे बिताए। आंटी वाकई बेहद खूबसूरत हैं औऱ अंकल वाकई क्यूटेस्ट पापा। बोनस में देवास से आयीं बुआ जी और भाइयों से मिलना हुआ। प्यारी फुबु से मिलना हुआ जिसके लिए उसी के रंग की एक बिल्ली सॉफ्ट टॉय घर पर थी। अंशुमन फुबु को लेकर उत्साहित थे लेकिन वो हल्का से भौंकती की डर के “अबे ! अबे! ” कर बेड पर दुबक जाते।
ये अबे अबे की आदत दो साल के बच्चन को मोनू भैया से आई है और मोनू भैया को उम्र से तीन फर्लांग आगे के मित्रों से।

अंकल रिटायर हुए फरवरी में और अपना अच्छा समय गार्डनिंग में देते हैं तो हमने दोपहर के खाने के बाद बात-चीत के क्रम में उनके किचन गार्डन की झलकी ली ।जाते से अचानक वही पेड़ दिखा जो सुबह महाकाल मंदिर परिसर में देखा था और समझ नहीं आ रहा था कि यार ये पीपल है कि क्या है पत्ता पीपल जैसा है भी और नहीं भी। कुछ फल भी लटक रहे। इतने में अंकल-आंटी ने समाधान किया की बेटा ये “पारस पीपल” है।
शहर का हॉरिजॉन्टल फैलाव, बड़े पीपल बरगद , और पेड़ों के नीचे शिवलिंग और अन्य देवी देवता , हमारा बचपन ऐसे ही दृश्यों में बीता होता है इसलिए ये सब हमें आकृष्ट करते हैं।
कभी कभी लगता है अपने बच्चों को मेट्रो में बड़ा कर जीवनानुभव के कितने पहलुओं से दूर कर रही हूँ। वे जाने कैसे लिखेंगे मिट्टी के अनुभव।

कुछेक तस्वीरें लेने के बाद हमने गर्मी देखते हुए कूलर में वापिस बैठना उचित समझा। बेहतरीन चाय और कुछ बातों- वातों में समय निकला और शाम साढ़े चार में हम वहाँ से प्रस्थान कर गए ।उज्जैन दर्शन के लिए पवन ऑटो वाले का अपॉइंटमेंट आलोक पहले ले चुके थे और उसका फोन भी आना शुरू हो गया। कार में बैठ दूर होते हाथों को बाय बाय टाटा टाटा करते मैं सोच रही थी अंग्रेज़ भारत में नहीं आते तो हम नमस्ते कर के निकल जाते या ये वेव करने को कुछ हिंदी नाम दिया गया होता । अलविदा भी बारह सौ ईसवी के बाद आई होगी जब मुगल भारत आये। राजपुताना और मराठा वेव को क्या कहते होंगे?

कल्पना होटल आने तक यही अटर पटर बातें दिमाग में चलती रहीं , मैं अपने ही दिमाग को चुप कराती रहती हूँ ।

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