मेरे खुशहाल घर दरवाज़े से
ख़बर बताने वाली गली
भी निकलती है।
मैंने चुना है अनसुना करना।
निर्मम दृश्य और दंश
को अनदेखा करना
टीस मेरी नींद माँगती है
नींदें जान माँगती हैं
मैं ज़िंदा रह लूँ?
सह लूँ सारा सच ?
जिन्हें कन्धे से चढ़ते
कानों तक जाते अचानक
झिड़क दिया मैंने
कहीं धँस न जाएं हॄदय में
या फेफड़ों में बीच
जैसे एक कौर अटक जाती है
प्राण लेने तक
मैं साँस ले लूँ?
देख लूँ दाह के दृश्य?
जिनमें बिन सुलगी चितायें
चीत्कार से भस्म हो रहीं है।
माँ !
माँ आँखें खोल
तू क्यों रो रही है?
ये विभीषका नहीं
सवांगयुक्त मुक्ति है माँ!
सोच समझ कर
लिखी गयी है।
देख पानी खत्म हो रहा है
सब जलमग्न हो रहा है
धरती भाप हो रही है
मिट्टी पाप ढो रही है!
मैं निष्कंटक इस चक्र
से निजात पा रहा हूँ
कहो कहीं सभ्यता का
असमय अस्त हो गया सूरज
जाने कौन योनी जाऊँगा?
अच्छा है !अच्छा है!
गंगे मैं तड़के फिर
मर जाऊँगा ।
भविष्य ने देख लिया है अपना हश्र
उसे आदमी की प्रजाति से कोई उम्मीद नहीं बची
इसलिए संतति अजन्मी रहना चाहती है।
बहुत चोट लगे दर्द में पड़े आदमी को देखा है, वो मदद के लिए भी नहीं पुकार पाता उसका सारा शरीर इतना कट चुका होता है वो दर्द में सुन्न पड़ा रहा जाता है। लोग सुन्न पड़ गए हैं ।
बहुआयामी रचना।
बहुत ही सटीक, सुंदर, संक्षिप्त, सारगर्भित रचना।
LikeLike
आभार, क्या कहूँ। क्षोभ में हूँ। 103 बच्चे मर गए। माँ बाप बहुत गरीब थे उनके।
LikeLiked by 1 person