दादा जी से मिलना हुआ । मैं बार बार तस्वीर ले रही थी तो कहने लगे:

“ई क्या आदत है तुम लोगों का।”

लेकिन जब नब्बे साल से अधिक का जीवंत समय साथ बैठे हों तो तस्वीर लेना बनता है। बहुत खुशी हुई , दूसरी बार दादा जी मुंबई स्थित हमारे अपार्टमेंट में आये। घर शब्द केवल मुम्बई के लिए कैसे लिख दूँ, आजकल सास भी कुशहर में रह रहीं।

एक मज़ेदार बात यह है कि मेरे दादा जी का नाम रूप नारायण झा और ससुर जी का नाम रूप नारायण मिश्र है । अंतर केवल अंग्रेज़ी की वर्तनी में है। दादा जी Roop लिखते हैं। बाबू जी Rup लिखते हैं। खैर।मैंने विंग की लॉबी में पुणे जाने वाली ओला का इन्तिज़ार करते हुए याद किया की दादा जी 1950 में अपने मामा गाँव गए थे इसलिए वो कहते हैं अगला कौआ जनम नहीं होगा।

1998 के अगस्त की बात है, उनकी बहन से राखी आयी तो मैंने पूछा था , “आपकी भी बहन हैं” , दादा जी गर्व से बोले थे हाँ हैं, फिर मामा गाम की चर्चा हुई थी।
आज पूछने पर बताये अभी उनकी सबसे छोटी बहन हैं, लेकिन राखी शायद वहाँ से अब नहीं आ पाती।

इससे पहले दादा जी 2013 में अभिज्ञान के जन्म के एक साल बाद आये थे। तब उनके आने पर मैंने एक कविता लिखी थी। लिंक देखनी पड़ेगी, शतदल ब्लॉग पर ही है। तब से अब तक में मेरे लिखने और बात रखने में बदलाव आया है। दादा जी से सम्भवत: मुंबई में फिर मिलना होगा। कल उन्होंने मेरी आवाज़ में गाने सुने और कविताएँ सुनी।

मैंने राग यमन में आरोह, अवरोह , पकड़ सुनाने के बाद “तोरी रे बाँसुरिया” बंदिश सुनाई।
उन्होंने कहा “अब ई हमको कैसे पता चलेगा तुम सही गायी की गलत गायी”

फिर बोले कुछ फिल्मी गाने सुनाओ तो आजकल अनिता मैडम की क्लास में मैं और अभिज्ञान किशोर दा का लिखा ‘आ चल के तुझे मैं ले के चलूँ ‘ सीख रहे , वो सुनाए। फिर दादी माँ की पसंद का मैथिली गीत “जगदम्ब अहीं अवलम्ब हमर ” सुना कर सभा खत्म हुई।

अभी-अभी शाम में भाँजी आराधना ने चुटकी ली , “मामी, सुर लगाने में नाना जी को रात में दूध देना भूल गयीं कल आप ।”
बात इतनी मज़ेदार तरीके से बोली लड़की ने की सोचा उसे डायरी में शामिल कर ही दूँ ।

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