साँझ सुन्दर छटा लिए सालों से आती रही
जब साधन आये तो दिखा इठलाती रही
देख आकाश कैसा मेरे शहर में रंग ऐसा
देख सुबह ऐसी दुपहरी का आलम ऐसा
एक रोज़ बिस्तर पे जब फ़ोन पटक
खिड़की पे बस यूँ ही खड़े हुए थे
निरन्तर बदलता रहा कैनवास
रंग क्षणभंगुर कितने सुखद लगे थे
ये सुख गैलेरी का मकबरा क्या देगा
दो चार देखेंगे पांचवा भर लाइक बटन दबा देगा
न उसमें नारंगी बैंगनी से हक का रास्ता मांगेगी
न नीला आकाश अचानक लालिमा फैला सकेगा !
न छोर के परे की कल्पना होगी
न बादल नया कोई चेहरा लेगा।

प्रज्ञा

25 अगस्त 2019

2.20 AM

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