धरती पर जीवित रहने का सारा प्रयास मनुष्य केवल अपनी संतति बनाये रखने के लिए ही तो करता है। प्रकृति तो बिना हमारे पहले से ही पूरी थी । शांत, सौम्य, प्रगतिशील, गतिमान। सबकुछ तो थी ही।
कोविड-19 की विपदा में जब लॉकडाउन ने इंसान के बच्चों को घरों में धकेल दिया है, ईश्वर के और बाकी बच्चे खुली हवा में साँस ले रहे हैं, गाड़ियों के नीचे आ जाने का भय नहीं है उन्हें। कोई कह रहा था यह कोविड-19 की विपदा ज़रा पहले आयी होती तो हजारों ऊँट मारे जाने से बच गए होते, बोत्सवाना में हाथी बच गए होते।
व्हाट्सएप पर लोग संजय गाँधी नेशनल पार्क की तस्वीरें डाल रहे, पारसी कॉलोनी बाबुलनाथ से भी मोरों के खुले में विचरण करने की तसवीरें आयीं, बृहनमुंबई महानगर पालिका ने खुली हवा में सांस लेती शांत मुम्बई की तस्वीरें साझा की। यह सब इंगित करता है। आदमी कितना कसाई बन चुका है। वह प्रकृति के रंग और संगीत की हत्या करता जा रहा, अनावश्यक दोहन में
आदमी की जरूरतें हैं कि कम नहीं होती , लालच का दैत्य आधे देह को अंतहीन पाताल समझ कर यहीं बस गया है । यहाँ सबकी ज़रूरतों के लिए पर्याप्त है लेकिन लालच के लिए नहीं।
अपने अपने तर्क हैं। जिसमे से एक सबसे बड़ा तर्क यही रहेगा घर का सबसे होनहार बेटा केवल अपना घर बसाता गया , आज वस उसी घर में कैदियों से जीने पर मजबूर है।
यह सब दार्शनिक बातें हुईं , सत्य तो यही है, हमारे पास दिमाग है, हम फिर खड़े होंगे, सीख हम क्या ही लेंगे, हमारे देह का आकार इतना बड़ा है कि हमको केवल हम ही हम दिखाई देते हैं, आगे भी यही होगा।
फिर भी कुछ लोग हमेशा रहें हैं और आगे भी रहेंगे जिनके दम पर ये रंग ये बाग हमेशा खिलखिलायेंगे। क्या लगता है अब ऐसे लोगों की संख्या बढ़ेगी? बढ़नी तो चाहिए। पोस्ट कोरोना एक रिसेट मोड ऑन होना ही चाहिए ।
#सबकी_धरती
तस्वीर साभार- इंटरनेट (संजय गाँधी नेशनल पार्क, एवम पारसी कॉलोनी मुंबई)
beautiful!!
LikeLike
आपकी प्रतिक्रिया के लिए सादर धन्यवाद
LikeLiked by 1 person