परसों दादा जी से बात हुई।दादी माँ के लिए लिखी दो कविताएँ उनको सुनाईं।दादा जी बहुत प्रेम से सुनते रहे हैं मेरी कविताएँ। एक समय था जब उनको मलाल था की मुझमें वो बात नहीं की मैं IIT वगैरह निकाल पाऊं , तब भी बहुत चाव से सुनते थे मेरी लिखी कविता या मेरा गाया कोई गीत। अब उनको मेरे जीवन का सब पहलू बहुत सुखद लगता है। अब कोई मलाल नहीं उनके मन में। उनकी बात से लगता है मैं जो कर रही जैसा कर रही सब बहुत अच्छा है , बहुत बढ़ियाँ है और वो मुझसे खुश हैं।
कुकू एफ एम पर पढ़े मेरे कुछ एक एपिसोड पापा ने उनको सुनवा दिए हैं जिसका मुझे संतोष रहता है कि उन्होंने सुना है। बाकी खुद से भी कॉल कर के उनको सुनाती हूँ। मैं ज़्यादा पूर्णियाँ जा नहीं पाती , अब तो लॉक डाउन ही हो गया लेकिन इच्छा है कि अब झट से एक बार हो ही आऊं, जब जैसे मौका लगे।
आज गूँज साहित्यिक समूह के वाट्सप मंच पर एक तस्वीर आयी जिसमें राजस्थानी किसान पृष्ठभूमि के दादा पोता हैं और अपने प्यारे से पोते को देख दादा के चेहरे पर स्निग्ध मुस्कान आयी हुई है।इस तस्वीर पर क्षणिका लिखनी थी।
मुझे भी मेरे दादा जी याद आये और उनको स्मरण कर के मैंने ये शब्द लिखे।
मरुस्थल से जीवन का मरूद्यान हो तुम
सिमट रहे कमरे की दूसरी छोर पर
जैसे सरपट दौड़ लगाने को तैयार
विस्तृत हरा भरा मैदान हो तुम ,
एक उम्र बाद जब सूद प्यारा होता है मूल से
जीवन के प्रसाद में पाया वही फूल हो तुम
मन का भीगा कोना, अंतस में दबी नमी
अधरों की मुस्कान, मेरा शाद्वल* हो तुम!
*शाद्वल –हरी घास।
Pragya Mishra