मेरे पतिदेव आलोक परसों ही दसहरी आम लेकर आये थे, बड़े ही मीठे, जिनको काट कर नहीं, मोदी जी जैसे खाते हैं। बेसिन लग में ठाढ़ होकर। वैसे ही खाये हम भी। आप सबको वह अलौकिक साक्षात्कार याद तो होगा, मुझे भी है।

सुबह सुबह उठ कर किचन गयी तो देखा भाँजी आराधना ने #मैंगो_पीपल्स को एकदम सलीके से धोखार पखार कर डाले में लगा कर रख दिया था। मेरे दिमाग में यकायक आया , “अरे वाह #आम_लोग” ।

सभी #मैंगो_पीपल्स कतार में थे, सभ्य मनुख के जैसे। मैंने उनका #मानवीकरण #अलंकार कर देना उचित समझा।

पहले मैंने सभी की हरी खड़ी फोटो निकाली तो लगा इनके आँख नाक भी होते तो मज़ा आता। दोनों बच्चे मेरे सो रहे थे तो ये सब टाइम-पास की आज़ादी इस वक्त थी।

आम लोगों का मानवीकरण करने के लिए मुझे अब एक मार्कर की ज़रूरत थी। इस लक्ष्य प्राप्ति हेतु अंशु-मोनू के पापा का त्वरित स्टेशनरी लोक ज़िंदाबाद (पिछले दस वर्षों से इस #स्टेशनरी_लोक को ठीक करना छूना मना है, क्योंकि तहियाने पर इनका समाने गुम जाता है। फिर मुझे ही खोज खोज के देना पड़ता है तब तक ई खीजते रहते हैं, परन्तु प्रयोग करने के लिए सामान लेकर यथावत उलझी हुई स्थिति में रखना एलाउड है)।

कैमलिन का काला मार्कर निकाल कर सभी फलों पर भाव सहित भौं आँख मूँह बना दिये।उसमें कोई शादी में रूठे फूफा नज़र आने लगे ,तो कोई भोली सी दीदी, कोई गुस्सैल मित्र तो कहीं अनभिज्ञ अजनबी, कोई ऐसा छात्र जिसको कक्षा में कुछ समझ नहीं आ रहा लेकिन चूँकि पहले रो में बैठा है तो एटेंटिव लगना ही पड़ेगा, कोई लोक डाऊन में अपना दस हजार रुपया बिजली बिल लेकर तमसाय पड़ा है, अडानी को गरिया रहा है। कोई खिड़की से सर टिकाए साहित्यिक भाव में बादल मेघा बरखा को देख देख रचना करने के फिराक में पड़ा है।

बस ऐसे ही ले आयी इन आम किरदारों को।

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