इस फ़ोटो में हैं मेरी बुआ “पिंकी पिसी” और दादी माँ की मम्मी , यानी पिंकी पिसी की नानी माँ, मेरी बड़ी दादी माँ।

बड़ी दादी माँ विदूषी थीं , बड़े दादा जी के साथ स्वंतत्रता सेनानी थीं। आज सुबह, रमन क्रिएशन वाले वाट्सप ग्रुप पर मुन्ना अंकल ने एक छायाचित्र भेजा, स्मृति पटल पर बीते दिन कौंध गए। पटना – पूर्णियाँ – बचपन – बड़ी दादी माँ की रहस्मयी मुस्कान।

कभी विस्तार दिया जाएगा मन में बसी इन छवियों को। आज एक घटना बताने को जी उमड़ रहा-

एक बार किसी दोपहर बड़ी दादी माँ ने मुझे पास बुलाया और मैथिली भाषा में कहा ,

“जो पान लगा क आन।”

मैं पान ले आयी। मुझे मेरी दादी माँ के बनाए पान-डाले से पान लगा कर देना आता था।

पान चबाते बाजपेई वाले अंतराल लेकर वो बोलीं:

“एत बैस”

मैं बैठ गयी।

उनके शब्दों के बीच का अंतराल भी सुखद होता था।

आगे उन्होंने कहा:

“तोरा एकटा मंत्र दय छियो , याद राखीहें”

उनके कोमल पैर दबाते हुए मैं घन्टा-घड़ी की भांति टिक टिक करती सुनने के लिए ततपर थी:

उन्होंने कुछ देर बाद कहा –

” जत लोक कानय(रोएं), ओत नय रही”

मेरी प्रश्नवाचक प्रतिक्रिया थी- “अच्छा?!”

मेरे चेहरे के भाव देख वे समझ गयीं की कक्षा आठ की बच्ची को बहुत समझ नहीं आया। वो मुस्करा कर सो गयीं।

“आब जो,

एतबे रहौ,

अपना सँ बूझ ,

हमरा सूतय के छौ”

बीज मंत्र की तरह यह पंक्ति मेरे अंदर घूमती रही। साल 1998 से 2014 तक सुप्त अवस्था में मेरे अंदर मेरी बुद्धि की रक्षा करता रहा यह मंत्र।

जुलाई 2014 के बाद जब मैं द सीक्रेट, यू केन हील योर लाइफ, सब्कांशस माइंड, आदि किताबों के सम्पर्क में आयी तो मुझे झटका सा लगा, जैसे मेरे भारत का कण कण गीता है और दुनिया कितनी प्यासी , मैं एक गिलास शर्बत मिलने को तृप्त होना समझ रही यहाँ पूरी गंगा मुस्करा रही है कि तू अबोध थी इसलिए तुझे मेरा महत्त्व अब तक पता नहीं था। बस इतना ही कहूँगी। इसका अर्थ वे ही समझ सकेंगे जिसको समझना है ।

यह बहुत विवादित मंत्र है यद्द्पि गूढ़ है। मैं साझा कर रही हूँ क्योंकि यही मुझे मेरी आज की स्थिति तक लेकर आता है। इस उध्दरण को सुनने के बाद मैंने कुछ भी पलट कर नहीं देखा न मेरा बचपन , न बचपन के लोग, न व्यथा, न पीड़ा, न एकाकीपन। मुझे उपहार स्वरूप सुंदर जीवन मिलता रहा। अशीर्वाद युक्त कलकल बहती धारा के समान। ईश्वर देते गए मैंने हाथ पसारे ग्रहण किया , प्रसाद मना थोड़ी करते हैं। इतना स्वादयुक्त ईश्वर के प्रसाद सदृश्य मीठा और सुगंधित जीवन, वहीं रहना है, वहीं बसेरा करना है, यही इस मंत्र का सार है।

प्रणाम दादी माँ।

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