प्यार पनपता है ऐसे
जैसे धीरे धीरे अपनी मर्ज़ी से
उगते झरते बढ़ते हैं पुष्प
बेरोकटोक निखरते संवरते
गुनगुनाती धूप में जगते और
अलसाये सोते हैं पुष्प

कभी कभी तथास्तु में ईश्वर दम घोंटू और ऑब्सेसिव प्रेम लिख देता है जो बासन का मुल्लमा छुड़ाते छुड़ाते भी पीठ पर चिपका रहता है। आँखों के आँसू से झाग धुलती रहती है और कंठ में पड़ी चोक से माथा भींचता है लेकिन उस व्यवस्था से निकल नहीं सकते, कोई बुरा मान जाएगा, क्या पता खुद को ख़त्म ही कर ले,या कि हम और कहीं जा भी तो नहीं सकते, या फिर दी जाएगी संस्कारों की दुहाई।

आलसी है, मूडी है, बिना सोचे समझे बोल देती है, बिखराव है हर तरफ उसके दिमाग में भी , घर में भी और उसकी कपबोर्ड में भी। अब उसे इस बिखराव में अपना पता मिलने लगा है। अच्छा लगने लगा है। सालों रहे हैं बिखराव और वो साथ साथ। एक संयमी अच्छा इंसान उसे बनावटी लगता है। वो इतनी अच्छी नहीं है जितना समझ लिया गया। उसे इतना अच्छा कोई क्यों समझने लगा यह सच मुच घुटन से भरने वाली बात है। उसकी अपनी कमियाँ हैं और उन कमियों के साथ खुश है वो।

सोलमेट सबसे उपेक्षित , जिसके बगल में लेटी अपने तमाम इश्क के चर्चे ले रही हो और तमतमाहट ठंडी कर के आराम की नींद सो गईं तुम। कुछ नहीं कहता सोलमेट, सुनता गया सोलमेट। आराम की नींद प्यार नहीं होता। चिड़चिड़ाहट पर तुमको छोड़ दिया जाना भी तो प्यार नहीं होता। अपने आप से कभी प्यार करना सीखा ही नहीं , इसलिए सोलमेट तुम्हारी उपेक्षा जायज़ हो गयी।

वादा नहीं माँगा कभी तुमसे कोई
बस निभाने का इरादा माँगा था
बचाकर रखूँ दुनिया की नज़रों से
नज़रबट्टू का नज़राना माँगा था
तुमको बोझ लगने लगे पर्दे सोफे
मैंने सिर्फ़ आशियाना मांगा था
कायनात नहीं माँगी थी तुमसे कभी
रोज़ एक बार का गले लगना ही माँगा था।