ईशा मुझसे छः साल छोटी है। मुझे पटना का वह मैटरनिटी क्लीनिक याद है जहाँ वह जन्मी थी। मैं छः साल की थी। उस दौर में सौदागर फ़िल्म का ईलू ईलू गाना बहुत चला था। गोदी में कुदाते खेलाते पापा उसको ईलू बुलाने लगे, नाम ही पड़ गया ईलू। पूर्णियाँ की बड़ी क्लास में ईलू आयीं तो शोहदों के कारण छोटे डाकनाम की बड़ी चर्चा से घर में सब चिंतित हो गए। नाम बाहर पूरी तरह से ईशा ही पुकारा जाने लगा।
ये इलू इलू क्या है ये इलू इलू ।
1993 में ईशा को भी प्ले स्कूल में डाला गया था। काफी सोच विचार के बाद उसका पहला नाम प्राची का उल्टा , शिप्रा पड़ा था। प्ले स्कूल महेंद्रू में था। हमारे मकान से थोड़ी दूर पर एक आंटी ने खोला था।
1994 में हम बोर्डिंग चले गए। बोर्डिंग स्कूल में मेरी बहन ईशा झा हो गयी और मेरा नाम “प्राची पद्मजा” से बदल कर प्रज्ञा झा, ग़ौरतलब है कि बिहारी बेटी के नाम में झा टाइटल के साथ नाम रखा गया था, जबकी कुमारी वगैरह लगाना आम बात थी। यह भी अपने आप में प्रचलन तोड़ना था।
शिक्षा भारती पब्लिक स्कूल, पालम हवाई अड्डा, दिल्ली के बोर्डिंग स्कूल के डोरमिटरी में नर्सरी के अन्य बच्चों के साथ ईशा भी रहती थी। सारे बच्चे एक ही बेड पर सोते । कोई छ: साथ बच्चे होंगे ईशा वाली एज कैटिगरी में।
मैं कक्षा चार में थी।कभी कभी स्काउट गाइड के बुलबुल टीम में कैंपिंग के लिए दूसरे बच्चों के साथ जाती तो ईशा होस्टल में मेरे से मिलने के लिए रोती। ऐसे में कोई सर मैम उसको भी लेकर मिलवाने ले आते थे। एस बी पी एस बढ़ियाँ था। बाद में पी. टी. सी. बेलापुर की बरखा के भैया भी वहीं पढ़े।
ईशा बचपन में चुप सी थी और जैसा कहा गया वैसे ही करती रहती आयी थी। उस समय के होस्टल बोर्डिंग में नर्सरी के बच्चों के प्रति रवैया वैज्ञानिक नहीं था। केयर टेकर एक मोटी अंटी ही दिखती थी जो बहुत रूड होती और डाँटती भी।
साल भर दिल्ली रहने के बाद मैं और ईशा बाड़मेर चले गए, मैं क्लास फाइव में, और नर्सरी के बाद ईशा सीधा पहली कक्षा में। उसे बहुत दिक्कत आती थी समझने में। उसकी कक्षा एक की परीक्षा हो रही थी।उसको कुछ नहीं आ रहा था। सभी बच्चे सर्दी के मौसम में बाहर धूप में लाइन से नीचे ज़मीन पर बैठ कर एग्जाम दे रहे थे।मैने जा के बोल दिया जाओ आगे वाले का देख के तुम पूरा लिख दो। वह इतनीं मासूम की उसने नाम भी सामने वाले का ही लिखा। बाद में पेपर चेक करते समय मुझे बुलाकर सर यह बात बताये। सर भी उसकी इस प्यारी गलती और समस्या दोनों को समझ गए उन्होंने उसे दुलार से पूछ कर छोड़ दिया।
बचपन मे ही उसे बेसिक्स मुश्किल लगे जिस कारण अंग्रेज़ी में ज़्यादा समस्या आयी। अस्थिर पढ़ाई, निरन्तर किसी न किसी से तुलना , हमेशा कुछ न कुछ सुनते जाना यह सब बड़ा मुश्किल दौर होता है छात्र जीवन में ।
जलिप्पा केंट बाड़मेर , फिर आगे केंद्रीय विद्यालय हवाई अड्डा दरभंगा में भी पढ़ाई के मामले मे ईशा का मनोबल गिरा था।
बाल मनोविज्ञान भारतीय पढ़ाई का हिस्सा अब भी बहुत बाद की बात है । घर मे भी यह व्यक्तिगत समझदारी की ही बात है। माँ और बाप फिर भी अलग अलग स्तर पर अपने बच्चों के मनोविज्ञान पर पकड़ रखते हैं लेकिन अन्य लोग कैसे बर्ताव करते हैं क्या बोल देते हैं यह सब भी बड़ा मैटर करता है और अनजाने में चूक होती है।
मैं खुद कक्षा चार में थी और बोर्डिंग में नर्सरी की ईशा को पढ़ाते इसलिए थप्पड़ मार देती कि उससे लिखा क्यों नहीं जाता। एक बार मैंने उसे इतने ज़ोर से मार दिया था कि उसके छोटे छोटे दाँत से उसके होंठ कट गए थे। उसके मूँह से खून देख कर मुझे बहुत अफ़सोस हुआ। मुझे नहीं पता था कि मारना अच्छी बात नहीं होती मेरे लिए यही नॉर्मल था।
उसके मूँह पर खून देख मुझे याद आया कि एक दिन मैने स्केच की रेड डॉट हाथ पर बना कर ईशा को डरा दिया था कि देखो दीदी का हाथ कट गया तो वो मेरे लिए बहुत रोयी थी। ये याद कर के मुझे अपने पर बुरा लगा। पर मुझे अब तक अफ़सोस नहीं हुआ था। इस घटना की ग्लानि मुझे हुई 2012 में।
कक्षा चार की ग़लती का पछतावा मुझे हुआ मार्च 2012 में जब मैंने समझा कि मैं महा अल्हड़ लरकोरी हूँ और ईशा दक्ष मौसी। माँ और दादी के सानिध्य ने उसके अंदर की लड़की को सघन किया था। जिस तरह कॉलेज जाने वाली उम्र में ईशा ने बहिन पुत अभिज्ञान को पकड़ा सम्भाला उसका एक नया ही पहलू मुझे दिखा था। वह बेहद कोमल और संवेदनशील भी है।
बचपन में ईशा बहुत होनहार तो थी लेकिन अंग्रेज़ी ने उसको धक्का दिया। फलाने को देखो। इतना भी नहीं आता। पता नहीं इसका क्या होगा। ये सब आम बाण अन्य बिहारी बच्चों के जैसे उसने भी झेले हैं।
जून 2002 में मैं 11वीं के लिए राँची चली गयी और दादी माँ, पापा ने कॉन्शस निर्णय लेते हुए ईशा को हिंदी माध्यम से पूर्णियाँ के शिशु मंदिर/ सरस्वती विद्या मंदिर में दाखिला दिलाया , उसने पांचवीं कक्षा वहीं पूरी की। फिर छठी कक्षा से आत्म विश्वास का संचार हुआ।
सरस्वती विद्या मंदिर से उसका उत्थान शुरू हुआ। जो विषय अंग्रेज़ी के कारण रोड़ा बने थे वे सब समझ आने लगे। पढ़ाई में सब खुद से करने लगी। आगे धाविका के रूप में अच्छी पहचान बनाई । शायद खेल कूद में रहने की वजह से वो कक्षा आठ तक आते आते बहुत लंबी हो गयी। पढ़ाई में भी बेहतर हुई और दसवीं में ख़ुद ही संस्कृत में निबंध और पत्र भी लिख लेती तो बड़ा गर्व होता। सुभाषितानि मुश्किल विषय था मेरे लिए हिंदी ही ठीक थी।
हिंदी मीडियम से दसवीं के बाद ईशा ने इंग्लिश मीडियम जबलपुर केंद्रीय विद्यालय से ग्यारवीं बारहवीं की पढ़ाई की। मुश्किल बदलाव था पर उसने वहां अच्छा किया ।
जबलपुर से शुरू हुआ उसके होस्टल/ गर्ल्स पी जी मे रहने का दौर। उसके व्यक्तित्त्व के विकास में ये समय एक अहम हिस्सा रहेगा।
जबलपुर से बारहवीं पास करने के बाद ईशा दरभंगा आ गयी। भूगोल स्नातक और स्नातकोत्तर करने के लिए पाँच साल दरभंगा गर्ल्स हॉस्टल में रही। दरभंगा यूनिवर्सिटी में गोल्ड मेडलिस्ट भी हुई। साथ साथ पटना से जर्नलिज्म में एम ए भी किया। अपनी आर्ट्स की पढ़ाई के साथ ईशा हम सबकी ज़िन्दगी में, शादियों में, दादी माँ के बीमार होने में सबसे ज़्यादा मौजूद रही और काम आयी।
अपनी पढ़ाई के साथ ईशा ने रेडियो में एनाउंसर की जॉब भी की। वो बोलती अच्छा है। लिखती भी अच्छा और सही समय की प्रतीक्षा के मामले में वो धीरे धीरे धरती हो गयी है। सुनने में अतिशयोक्ति लगता है, लेकिन ऐसा है।
इसके अलावा वो संगीत से विषारद है। आगे रियाज़ नहीं किया क्योंकि यह बहुत ज़बर्दस्ती किया था, संगीत में उसकी कत्तई रूचि नहीं थी। पर वो गाती अच्छा है ख़ासकर अंग्रेज़ी गानो के बोल वाले गाने बहुत सही पकड़ती है।
ईशा ने विवाहोपरांत पुणे में दो वर्ष एक फॉरेक्स कम्पनी में जॉब किया। पुणे जैसी जगह में दूर ऑफिस खुद ही स्कूटी चला के आना जाना करना, उस पर से मार्केटिंग में भी धाक जमा कर रखना , ये सब तो बड़े भारी गुण हैं। जॉब से मन उठ गया तो अब B.ED. कर रही है साथ ही घर परिवार और अपनी प्यारी बेटी के साथ व्यस्त रहती है।
लॉकडाऊन में अचानक मिथिला पेंटिंग्स सीखना शुरू किया और इतना जल्दी सीख गयी, ऐसी सिद्ध हस्त हो गयीं कि मैं तो यही कह रही “न न ये तो तुम पेट से सीख के आयीं थी, ऐसे थोड़ी न सीख जाते है इन्नी जल्दी” ।
उसकी मिथिला पेंटिंग्स देख कर मुझे लगता है यही उसका गिफ्ट है। दुनिया मे सबको भगवान एक एक गिफ्ट दिए हैं न , हम सभी उसी गिफ्ट को ढूंढ़ने में तो लगे है । शी इज़ सिपंली सुपर्ब।


