फ्लैट की बालकनीनुमा जगह पर गमले में झूम के गुलाब उगे। फ़रवरी समझ आयी, समझ आया बसंत। होली भी आएगी। गुलाबी रंगत घर को चार दिन ही सजायेंगे। फूल उगने की आस में पानी देना , उसके सामने बैठना, गीली मिट्टी छूना , उस गमले में लगे फूल के बारे में बात करना मेरे बच्चों में उत्सुकता जगाते हैं, एक मकसद देते हैं, और यही चाहिए किसी भी माँ बाप को।

बेटा अंशुमन , केयर टेकर ऊषा आंटी को गुलाब की देखभाल करते देखता है। उसके तमाम सवालों के लिए मेरे पास एक ही जवाब होता है, “बेटा एक मिनट” , जानकारी की थाती का ढोल क्या पीटा जाए गुलाब की महक, उसका मुलायम होना, उगना,फालना, मर जाना यदि बच्चे को न बता पाए । उषा आंटी मराठी मिश्रित हिंदी में समझने योग्य थोड़ी थोड़ी बात अंशुमन को बताती रहती है। मेरी थाती अपराध बोध में फेसबुक पोस्ट लिखती है। अफ़सोस की सोती हुई नन्ही जान को यह मालूम भी न चला हो कि उसकी।माँ ने उसे बोसा लिया है, वह यही याद रखेगा की मम्मी ने मुझे सुलाने से ज़्यादा आज भैया को पढ़ाने के लिए टाइम दिया है। या शायद बच्चा है, भूल जाये, श , तुम भी न बहुत सोचती हो।

इस ख़ूबसूरती को उगाने में मेरी कोई मेहनत नहीं। ये फूल और मेरे घर का हर हरा पत्ता इस दौरान अंशुमन की केयर टेकर उषा आंटी की बदौलत है। गमले और घर सज्जा से मेरा नाता कभी नहीं रहा, ऐसा कुछ खास किय्या भी नहीं पर आंटी जितना भी जो भी देख देती हैं उससे बच्चे पौधों से जुड़े हुए हैं।

ऐसे कितने मौके आये जब आंटी के देरी से आने पर मेरे ऑफिस के काम मे मुझे दिक्कत हुई, इन तीन सालों में मैने क़ई बार उनको निकाल देने का सोच लिया क़ई बार वो खुद ही जाने को ही गयीं। कभी तो बच्चे की देख रेख पर बहस हुई, लेकिन हर बार इन गमलों में लगे हरे पत्तों ने मुझे कड़ा रुख लेने से रोक दिया।

मम्मी जी आज कल नहीं रहती , घर मे लगे काम और उनके स्वास्थ सम्बन्धी समस्याओं को लेकर वे अधिकतर दिल्ली या गाँव में रुक रहे। ऐसे में ऊषा आंटी और नंदिनी दीदी ने अंशुमन के लिए घर मे विविधता भरा उत्साह लाने का काम किया।

वर्क फ्रॉम होम मदर होना नदारद माँ से ज़्यादा कठिन होता है। कहिए कि सालों पहले सन 2019 में जब मैं घर आती थी तो अंशुमन कूद के मेरे पास खेलने आता था, अब तो वो ये पूछने आता है कि, “मम्मी आपका मीटिंग हो गया” ।

मेरे वर्क फ्रॉम होम में अंशुमन को और जल्दी परिपक्व होना पड़ रहा है। चार साल के बच्चे की परिपक्वता में माँ बड़ी बचकानी लगती है, कैसे अपने को इतना बड़ा करे कि मीटिंग भी करे, झिड़के भी नहीं और पढ़ा भी दे, खेल भी ले, दुलार भी कर ले, खिला भी दे, स्कूल भी एटण्ड करा दे, होमवर्क भी करा दे, कभी न कभी तो खिसियाए जाएगी ही। “खिला भी दे” , “बड़ा आयी खिलाने वाली”, हाँ ये हकीकत में मैने मेरे दोनों बच्चों को खाना नहीं खिलाया, मुझमें आलोकसर जितना धैर्य है ही नहीं। मैने बचपन में गुलाब के उगने की बाट नहीं जोही थी, बॉल पेन के आने तक केवल इंक पेन की निब तोड़ी थी।

शिकायतों से परे इस दौर में हमने अपने बच्चों की ऐसी प्यारी हरकतें देखी और मिसरी जैसी बातें सुनीं जिनका ज़िक्र लेकर बिंब नहीं तैयार होगा उन्हें माँ की आँखों से और पिता के कानों से ही सुनना होगा । पटरी पर इन बच्चों का जीवन तब तक नहीं आएगा जब तक उनको उनका साधारण बोलचाल के दोस्ती का सर्कल नहीं मिलेगा।

गमले में गुलाब अकेला नहीं फूल और भी खिले हैं,
आभासी अनलॉक में बच्चों को संग खेलने वाले मिले हैं।

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