लोकडाऊन के दौरान दिल्ली छोड़ कर जैसे तैसे घर पहुँचे एक मित्र को उसकी ज़मीनी हक़ीक़त समझे बग़ैर मैं गाँव शहर पर ज्ञान दे रही थी। तब जो शब्द उनके रुँधे गले से निकले उसको सुन मैं थोड़ा सोच पड़ गयी। फिर मैं भी मेरी सास के पास दो तीन महीने गाँव रह कर आई और आदमी को जैसा जीवन मिलना चाहिये वैसा जी कर आयी।बात चीत के अंश से निकली बात इस प्रकार है:
लोग कहते हैं वो शहर में रहते हैं क्योंकि वहाँ सबकुछ मिलता है, लोग कहते हैं वो कभी कभी ही गाँव जाते हैं क्योंकि वहाँ कुछ नहीं मिलता है।
लोग झूठ बोलते हैं।
मेरा गाँव ही मेरा शहर है, वहाँ मुझे सहारा मिलता है, अपने लोग, बच्चे, एक घर, खुला आसमान, ताज़ी हवा, साफ पानी,अच्छी नींद, आदमी का जीवन पूरा मिलता है।
मेरा “गाँव” नौकरी है, नौकरी में कुछ नहीं मिलता है। दुनिया पूछती है, किस गाँव के हो, तो मैं कहता हूँ, जहाँ मैं नौकरी करता हूँ। दुनिया की नज़र में शहर वो है जहाँ सब कुछ मिलता, मेरा गाँव ही मेरा शहर है वहाँ सबकुछ मिलता है।
गाँव में हम बसते हैं, शहरों में मैं।
प्रज्ञा मिश्र
12/03/2021
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