प्रिय टोपी,
पूरा उपन्यास सुनने के बाद मैंने इंटरनेट खंगाला, दसवीं के बच्चों ने सिलेबस में बाल मनोविज्ञान की कसौटी की तरह तुमको पढ़ा है ।
लेकिन यह कहीं नहीं मिला कि तुमने आत्महत्या क्यो की , हर जगह लिखा है कि उसके लिए आपको उपन्यास पढ़ना पड़ेगा जैसे कोई नई रिलिज़्ड फ़िल्म का सस्पेंस नहीं तोड़ना चाहता।
मैं कौन होती हूँ यह तय करने वाली कि तुमने ये निर्णय क्यो लिया, बस नींद ऐसी उचटी की आत्ममंथन लिखने बैठ गयी। यूट्यूब पर नए अंग्रेज़ीशुदा अधकचरा बच्चों के हृदय हीन वक्तव्य पढ़े मैने कोर्स गत ‘टोपी शुक्ला’ उपन्यास के लिए। मन दुःख गया।
राही मासूम रज़ा को कितनी तकलीफ़ हुई होगी कि कैसे लुढ़क रहा है भारत अपने मूल्यों से कितना लुटा हुआ है । उनके समय से और भी ज़्यादा। “लाश” यही सही शब्द है। भारत आज मृतप्राय मूल्यों की लाशें ही वहन कर रहा है और अब न जाने कितने टोपी शुक्ला और इफ़्फ़न चुप होते जा रहे हैं, टूटते जा रहे हैं।
टोपी, यह जानते हुए भी कि तुम अंत में आत्महत्या करने वाले हो , बड़े विश्वास के साथ पूरी जीवनी सुनती गयी, यह भी न सोचा कि हाय तुम तो मरने वाले हो।
क़ई एक जगहों पर हँसी आयी। ख़ास कर तब जब तुम केवल बलभद्दर थे और इफ़्फ़न मियाँ कि साइकिल देखकर एक अदद साइकिल की चाहत रखते थे। इतना कि भाई या बहिन के बदले साइकिल न हो सकती पूछ बैठे।हाय तुम्हारे घर वालों ने तूम्हारी इच्छा न समझी।
मझला बच्चा , उपेक्षित बच्चा, कुरूप बच्चा, अभागा, अछूत, अपवित्र बच्चा, जिसको सगी माँ ने भी पूरी तरह न समझा ऐसा बच्चा। ये सारे दुःख और भेदभाव जो तुमने झेले इससे क़ई लोग राब्ता रखते हैं।
अपना कह पाने वाले घर का नहीं होना और दुनिया मे अकेले आकर नितांत अकेले रह जाना बड़ी घातक पीड़ा है।
तूम्हारी ज़िन्दगी सुनते हुए तुम्हारे लिए सबसे पहले दुःख तब हुआ जब सहसा “अम्मी” कहा जाने पर बात जाहिर हो गयी थी कि कलक्टर सहिब के लड़के से तुम्हारा याराना है और बाप तुम्हारे तड़ से चीनी तेल की परमीट में फायदा ले गये। वहीं तुम अपनी फ़ारसी ज़बान वाली दादी के कोप भाजन बने और रामदुलारी मैया से मियाँ ज़बान बोलने के लिए कूट के आधा कर दिये गए।
तुमको इफ़्फ़न की दादी और उनकी देसी बोली में प्यार और अपनत्व मिला तो तुमने सहजता से दादी बदल ली लेकिन तुम हिंसक न हुए। जहां प्यार मिला जल धारा की तरह उसी सतह की तरफ मुड़ गए। सीता के साथ सिमट गए। घुड़की, घुटन, आत्म सम्मान का कुचला जाना और हर कदम पर निर्दयी दुनिया के द्वारा तुम्हारा मज़ाक बनाया जाना सहा तुमने। ये सारी बातें विश्वास तोड़ कर जीवन ख़त्म कर लेने के लिए काफ़ी होती हैं। फ़िर भी तुमने नौंवीं ग्रेड निकाली।
पग पग पर पद दलित बलभद्दर , सच मे तूम्हारी कोई इच्छा न पूरी हुई, भाई हो गया साइकिल न सुनी किसी ने , सकीना जमू चली गयी, राखी नहीं ही बांधी उसने, इफ़्फ़न और शबनम भी साथ न रहे, सलीमा ने धोखा दे दिया अब साथ तुम अलीगढ़ में अपना चौथा टुकड़ा कब तक ढोते रहते?
तुमने ये भी चाहा था कि बहराइच वाले उस नॉनसेंस से कालेज में तुम्हारी नौकरी नहीं हो । यहाँ भी समय ने तूम्हारी एक न सुनी वहाँ नौकरी हो गयी।
तुम जानते थे कि टोपी शुक्ला कुछ भी कर सकता है कंप्रोमाइज़ नहीं कर सकता। एक सच्चा हिंदू होने की विडंबनाओं के बीच हिन्दू मुसलामानों के प्रति अपने साइंटिफिक दृष्टिकोण से कम्प्रोमाइज करने से बेहतर तुमने आत्महत्या का रास्ता चुना।
मैं ये नहीं कह सकती की तुम्हारे होने से दुनिया थोड़ी और बेहतर होती , कुछ बदल जाता या तुम्हारे जाने से ही किसी को कुछ समझ आ गया। हाँ पर अपनी जान देकर तुमने अपनी ख़्वाहिशों में से एक पूरी की समय तुमसे कोम्प्रोमाईज़ न करा पाया।
सोचती हूँ कि काश दूसरा वाला तार समय पहले लेकर आता। सकीना का लिफ़ाफ़ा पहले मिला होता। तुमने राखी देख ली होती, देख लिया होता कि ज़िंदा रहते एक ख़्वाहिश पूरी हुई, सकीना ने महेश और रमेश के बाद बलभद्दर को अपना भाई माना है।
टोपी तुम खुशी से झूम उठते और शायद अगले तार में बहराइच की मुहर को बस हँसी में उड़ा जम्मू चले जाते। सकीना को बताते कि सकीना जिस जिस को तुमने राखी दी वो समय और हालात के हिसाब से मरे इसमें तुम्हारी राखी का कोई कसूर नहीं था, इसका सबूत ज़िंदा टोपी है।
लेकिन टोपी तुम तो मर गए। उधर जमू में सकीना को जब ये ख़बर मिली होगी तो अपराधबोध में वो और धंस गयी होगी। इफ़्फ़न तो अधूरे रह ही गए बिना तुम्हारे। अफ़सोस होता है सोच कर।
Pragya Mishra