भारतीयों को दोबारा स्वामी विवेकानंद के कथन पर विचार करना चाहिये कि “व्यक्ति से समाज बनता है, समाज से व्यक्ति नहीं बनता”
कोई समाज अचानक नहीं सुधरता , सबसे पहले एक व्यक्ति अनुशासित होता है फिर अपने अनुशासन की गरिमा में वो दूसरे से आग्रह कर पाता है…. फिर लोग उसका अनुसरण करते हुए दिव्य पुंज में परिवरतित होते जाते हैं…. इस तरह एक ऐसे स्थान का निर्माण हो जाता है जो उत्थित है जाग्रत है फिर उसे हम मंदिर कह देते हैं, मॉडल स्टेट कह देते हैं, फिर उस स्थान पर पहुंचने भर से सोच लेते हैं कि सकारात्मकता प्रवाहित होने लगेगी , वहाँ भीड़ होने लगती है, उसके नियंत्रक जन्म लेने लगते हैं, बोर्ड बनजाते हैं, वह एक सम्पत्ति बना दी जाती है। जबकि ये सबकुछ स्थान से नहीं एक व्यक्ति के परिवर्तन से सम्भव हुआ था।
हम व्यक्ति का परिवर्तन भूल जाते हैं, उस स्थान और उस प्रदेश का महिमा मंडन होने लगता है, वह व्यक्ति भगवान बना दिया जाता है, अर्थात भगवान हम में से कोई भी हो सकता है।
हमको तय करना है हमारी महानता कितनी ऊंची हो सकती है। हम अधम तो समाज अधम हम उत्थित तो समाज उत्थित कोई स्थान कोई प्रदेश आभा और प्रतिभा का स्त्रोत नहीं है जो है एक व्यक्ति के भीतर है।
हम कौन थे
क्या हो गए
और क्या होंगे अभी
आओ विचारें
आज मिलकर
ये समस्याएं सभी (-भारत भारती)
Pragya Mishra