ये वही जगह है, जो हर रोज़ होती है, तस्वीर में कभी चाँद होता है, कभी नहीं होता है। आसमान दुनिया की छत है। बना रहता है, सीना चौड़ा किये अलग-अलग रंगों में। मैं किसी कैद में नहीं कि मेरे घर की खिड़की बस एक ही नज़ारा देखने को बाध्य करे, बल्कि मैं तो विस्मय में हूँ कि स्थायी होकर यदि मैं प्रतिदिन एक अचल स्थान से भी तस्वीरें लेती रहूँ तो किसी भी दिन छटाएँ एक सी नहीं होती, बादल की भंगिमाओं में परिवर्तन निश्चित है, अस्ताचल दिवाकर की किरणों के तेवर भी ऊपर नीचे होते रहते हैं! फिर हमसे क्यों उम्मीद है दुनिया को हमारा अचनाक खिल जाना, मुर्झा जाना , अचानक रुंआसा हो पड़ना बड़ा ही अजीब और अप्राकृतिक है?
जैसे मेरा आसमान एक सा नहीं रहता , वैसे मैं भी एक सी नहीं रहती, आपने जो रंग देखा, वो पाया, कभी भाया , कभी नहीं भाया।
Pragya Mishra