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आमरण नहीं जीना था,
जितना जीवन है उतना ही जीना था,
इसलिए रंजिश भुला दी
और आगे बढ़ गयी।

तुम कहती हो
मुझको फ़र्क नहीं पड़ता
फ़र्क तो इतना पड़ा कि
मैं अक्सर बैठे बैठे खो गयी।

बहता बादल, सूखे पत्ते
और सड़क के पत्थर पे भी
कविता कर गईं।

गहरी सांस लेकर घोल देने
की आदत हो गई,
जो नहीं घुला
उसमें डॉक्टरी ही गयी।

एक हाथ की दूरी पर बैठी श्रावणी
कई बार बुलाती रही
मैं अपनी आँखों को
किसी शून्य में टिका के जाने कहाँ देखती रही

मन मैराथन दौड़ रहा है
जब तक साँस नहीं टिकती।

श्रावणी!
जो आवाज़ कानों तक
गयी ही नहीं
उस पर कौन सी चिड़ियाँ उड़ती?

-प्रज्ञा 13 जनवरी 2017

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