onam2021 #onasadya

भाग 1

भाग 2

भाग 3

कार्यालय में हुए अनुभवों से

मैं मैथिल हूँ, हाथ से पत्तल पर खाने का अभ्यास है। मुझे यह पद्धति भली लगती है और इतना सारा पकवान एक साथ पत्तल पर आते रहता देख कर क्या ही सुखानुभूति होती होगी यह जिह्वा का व्याकरण ही समझता है सो ओणम मुझे रुच गया।

साल 2007, नई नौकरी के दिनों में ट्रेनिंग के लिए चेन्नई गयी थी, वहां हमारे ही रिक्रूटमेंट श्रेणी लेकिन दो बैच पहले का एक ग्रेजुएट लड़का था जो केरल से था। हमने कहानियां सुनीं कि उसकी किस्मत “ओणम फेस्टिवल ऑर्गनाईज़िंग एंड प्लानिंग” से ऐसी चमकी थी कि उसे तो सीधा विभाग में एच. आर. का पद ऑफर कर दिया गया था। इतना सारा विपुल भाग्य प्लेट में सजा कर नहीं सतत कर्म कौशल से मिलता है, दो महीनों में हमने सामने से देखा था वो वाकई काफी योग्य था और हमेशा ऊर्जावान ही दिखा, ओणम वाली कहानी किसी फैंतासी विजय गाथा की तरह उसपर रुचती थी।

इन तेरह वर्षों में दक्षिण भारत की सबसे अधिक किसी पद्धति को अपने आस पास देखा है तो वह ओणम ही है क्योंकि कार्यालय में या किसी विभाग की इकाई में सर्वोच्च पदासीन व्यक्ति जब जब मलयाली रहे उन्होंने एम्प्लोयी कनेक्ट के तहत ओणम के दिनों बहुत शानदार आयोजन रखवाए जो वृहत स्तर पर होते थे। समूचे कैंटीन एक दो हज़ार लोग बैच में खाते थे। लीडर अपने निकटम समूह को प्रोसहित करने के लिए कूपन फ्री ट्रीट देते। थोड़े भरतीय और आधे पश्चिमी रंग में डूबा समूह का समूह सीखने की मुद्रा में कौतूहल से #onasadhyam खाया करते।

जिनसे सम्भव था वे केरल के पारंपरिक परिधान में आते थे। बजाबते पूरी सजावट और केरल के परंपरिक गायन वादन के साथ आयोजन किया जाता था। केरल पाक कला में सिद्ध केटरर को कॉन्ट्रैक्ट दिया जाता था। सारा माहौल केरल के गीतों और वाद्ययंत्रों से गुंजित होता था। सीढ़ियों की रेलिंग और दीवारों पर गेंदे के पीले और नारंगी फूलों की क्रमवार लगी लड़ियाँ अद्भुत स्वर्ग से उतरे क्षण सरीखी दिखती थी।

इन सब बातों के बीच कितनी ही सुरबलाओं को “सो क्लमज़ी येट कूल” करते हुए आश्चर्य में बलखाते और फिर हँस हँस खाते देखा है।
खाना छोड़ कर उनके चेहरे देखते ही उनके केश विन्यास पर मेरी दृष्टि बराबर जाती रहती क्योंकि मेरे घुंघराले बालों का ज़्यादा कुछ मैं कभी कर नहीं पायी।

प्रांतीय एकता के प्रति उदासीन तकनीकी युवक-विराटों को समृद्ध ऑनसाइट से वापिस आकर सांस्कृति से विलगते और ब्रह्म बौद्धिक बनते देखा है, कि “हमने पीज़ा ऑर्डर किय्या है यू वाना ईट। “

साल दर साल बदलते विभाग और स्थान के साथ मेरे भी नए मित्र बनते गए जो प्रवृत्ति से मेरे ही जैसे स्वछंद मिले जैसे प्रिया दरवानी, पिंकी शाह, हेमा शर्मा, लिप्सा महापात्रा, गरिमा खुरासिया, विजयमाला वर्मा, केजल वाज़, श्रुति चित्रांशी इनके साथ मैने ओणम की पंगत का आंनद लिया है।

इनमें से अधिकांश से साथ मैं आज भी बात चीत के सीधे सम्पर्क में हूँ। ये स्त्रियाँ मुझे बहुत अच्छी दोस्त मिलीं।

ये अच्छा था कि कार्यालय में ओणम फेस्टिवल की पंगत शुक्रवार को ही होती थी। काम भर काम और आनंद भर घूम टहल लेना दोनों भी हो जाता था।

प्रज्ञा मिश्र

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