आज पापा का जन्मदिन है। जिस वर्ष यात्री बाबा नागार्जुन अपनी अंतिम यात्रा पर निकले पापा आकाशवाणी दरभंगा से कवरेज के लिए गए थे। #पाँच_नवम्बर

उस साल मैंने उनके लिए एक टी कोस्टर खरीदा था जिसका आकार ग्रामोफोन का था और उसमें छोटे छोटे खाँचे थे जिनमें पिन, छोटे पेपर इत्यादि रखा जा सकता था।

उनके जन्मदिन पर मेरे भाई बहन पूर्णियाँ में बहुत प्रेम से तैयारियाँ करते हैं।

पापा हर अवस्था को “ठीक है, बहुत अच्छा” से निकाल लेते हैं।उनके बोलने से जो मोती सरीखे शब्द झरते हैं उससे उन्होंने दुनिया की लाइब्रेरियों को वंचित रखना उचित समझा है, उनके मुताबिक केवल पढ़ते जाओ, पतले से पैम्फलेट में भी ज्ञान भरा है।

वे अक्सर आँख बंद करके सोचते हुए बात करते हैं। पापा की, और दादा जी की मुस्कान घर में बेहतरीन मानी जाती है । दोनों ही कम उपलब्ध होती है।

आज बातों-बातों में दादा जी ने ही अपनी उम्र बताई की वो चौरानवे वर्ष पार कर चुके हैं। अब जाके लाठी उठाई है।

मेरा पूरा जीवन जिनके बताए निर्देशों पर खड़ा हुआ वे पापा , दादी माँ और अरुण अंकल हैं।

किसी भी चर्चा में पापा की कहीं उक्तियाँ सहज याद रहती हैं क्योंकि उन्होंने ने भी कभी किताब देख देख के आज तक कुछ नहीं पढ़ाया।

एक उक्ति पापा हर बात-चीत में बोलते हैं

“एकै साधे सब सधे सब साधे सब जाए।”

पापा की बातें NCERT किताब के अध्याय की तरह होती हैं। बहुत कम बताया रहता है लेकिन बहुत बातें निहित रहती हैं और अचानक एकांत में अपने आप समय आने पर “ओह अच्छा” कर समझते जाते हैं।

किसी भी हाल में अपने माता पिता के ही निकट रह कर जीवन यापन करना इक्कीसवीं सदी के युवा के रूप में बहुत सुखद निर्णय रहा उनके लिए।

स्मृतियों में मुझे कहीं घूमता है कि जब पटना घघा घाट में रहते थे तब मैं उनको डैडी बोलती थी। पापा शायद 1996 में दिल्ली से राजस्थान आने के बाद बोलने लगी अचानक।

मैंने पिताजी कभी नहीं बोला । हमने मैथिली में भी कभी बात नहीं की । हमने अंग्रेज़ी में भी कभी बात नहीं की।

पापा केवल साहित्य बोलते हैं और भाषा शब्द तक सीमित नहीं रहती, चेहरे को देखकर भंगिमा के हिसाब से समझना पड़ता है।

उनके साथ देखी मेरी पहली फ़िल्म डैडी है। “ये फ़िल्म देखो बेटा ” कह कर साथ देखने बैठने कहा था।

उस दिन अरुण अंकल कॉपी घिसा-घिसा के गणित बनवा रहे थे उसी बीच फ़िल्म देखने की बात चुप-चाप अच्छी खबर थी।

रॉबर्ट लुडलुम के उपन्यास और रैंगलर की रिंकल फ्री जीन्स एक समय उनकी काफी अधिक करीब दो चीजें थीं।

उसके बाद घटनाएँ जीवन की दिशा के मुताबिक स्थान पाती गयीं।

मेरे पापा डॉ० प्रभात नारायण झा दिव्य हैं।

हर व्यक्ति को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस नहीं समझ सकती, हर व्यक्ति तकनीक के इतने पास नहीं,कुछ लोग केवल प्रकृति के पास मिलते हैं।

जन्म दिन की शुभकामनाएं।

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