https://wp.me/p2X0IL-iI. (मनोज जी की कविताओं पर पोडकास्ट किया था उसकी लिंक)
यूँ ही अचानक लिखने का मन कर रहा Manoj Kumarjha एक बहुत अच्छे इंसान थे, और मैं यूँ ही उनसे अपना लिखा कुछ साझा करती थी और वो बहुत अच्छा मार्गदर्शन भी करते थे।
परिचय — उन्होंने 2020 में शतदल ब्लॉग पर भेजा था।
मनोज कुमार झा
जन्म : 28 जुलाई
शिक्षा : एम.ए. (इतिहास), जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली
छात्र जीवन से ही साहित्यिक लेखन, वैचारिक कलमकार मासिक का संपादन (1982-85)।
प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से संबद्ध।
विविध पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, लेख, समीक्षा, शोध-लेख प्रकाशित।
राजनीतिक विषयों पर प्रचुर लेखन।
कविता-संग्रह ‘लाल-नीली लौ’ का 1992 में प्रकाशन। दूसरा कविता-संग्रह ‘तुमने विषपान किया है’ 2018 में अमन प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित, तीसरा काव्य-संग्रह ‘एक नयी यात्रा पर’ नमन प्रकाशन से ही जनवरी, 2020 में प्रकाशित।
सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ इंट्रक्शनल टेक्नोलॉजी, नई दिल्ली में रिसर्च एसोसिएट।
भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली में रिसर्च एसोसिएट।
कई अख़बारों में काम किया। फ़िलहाल पत्रकारिता, स्वतंत्र लेखन।
साहित्य से जुड़े विषयों और अपने कॉलेज के दिनों के सम्पादकीय अनुभव से काफ़ी कुछ छोटे-छोटे वाकये लिख कर भेजते। मनोज जी अपनी कविताएँ अपने पाठकों से सोशल मीडिया केमाध्यम से साझा करते रहे। सबसे बड़ी बात वो शतदलरेडियो को गंभीरता से लेते, उन्होंने अपनी रचनाएँ शतदल ब्लॉग के लिए भेजी। हमने उनकी रचना का एक पॉडकास्ट भी तैयार किया था।
उनकी रचनाएं पढ़कर पाठक आश्चर्य और रोमांच से भर जाते हैं, वे इतना अच्छा लिख कर गए हैं जिसके बराबर आज बहुत कम लोग लिखते हैं।
आज कोई विशेष दिवस नहीं है पर अचानक आपकी बड़ी याद आ गयी, वे पिता तुल्य थे, मित्र थे और मार्गदर्शक, वाट्सप मेसेजेस को मैंने सहेज रखा है जिसमें उनकी कुछ बहुत सुंदर कविताएँ हैं और मुझे साहित्य में आगे आने के शब्दों का उत्साहवर्धन है ।
न्यूज़बताओ ई-पत्रिका की सम्पादक जागृति झा जी जिनसे मेरी भेंट मनोज जी ने ही करवायी वे भी उस दिन बड़े दुख और आश्चर्य से मेसेज कर के पूछ रही थीं , क्या ये खबर सच है, अफसोस की सच थी।
मनोज जी वैसे लोगों को प्रोत्साहित करते जो अधिक पढ़े नहीं गए पर जिनमें अच्छा कर पाने की संभावनाएं हैं। यह बात बहुत कम लोगों में मिलती है।
उन्होंने अपनी या अपने लेखन की मार्केटिंग कभी की ही नहीं उनको साहित्य का रिटेल बाज़ार रास ही नहीं आता था, पर वाकई वो बड़े ऊँचे दर्जे के लेखक, कवि और साहित्यकार थे।
वे हम लोगों से उम्र में बहुत बड़े थे पर मित्रवत और इतने डाऊन टू अर्थ व्यक्ति कि कभी एहसास नहीं होने देते अपने ऊंचे दर्जे लेखन का कोई घमंड कभी नहीं रह उनको।
आज उनकी कविताओं में से कुछ यहाँ साझा कर रही हूँ। बहुत बहुत सम्मान के साथ।
1️⃣
कला भौतिक मूल्य उत्पन्न नहीं करती, तो उसकी ज़रूरत भिन्न किस्म की है। यह सच है कि कविता भौतिक जीवन में, उसके सुखों में कोई योगदान नहीं कर सकती, न वह ठोस सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक समस्याओं का हल तलाश करने में, सामाजिक बदलाव लाने में, शोषणमुक्त और समतावादी समाज बनाने में साधन बन सकती है। कविता और कला इससे इतर मनुष्य की किन ज़रूरतों के निमित्त होती है, यह विचारणीय है। राजनीतिक मुद्दों को लेकर श्रेष्ठ कविता लिखी जा सकती है, इसमें मुझे सन्देह है। कविता तो मनुष्य के जड़ और चराचर जगत से, सृष्टि के मूलभूत उपादानों से, उसके रहस्यमय अस्तित्व से आत्मिक और रागात्मक तादात्म्य स्थापित करने वाली एक स्वतंत्र अभिसृष्टि बन जाती है। कवि को ब्रह्मा सम्भवत: इसी अर्थ में कहा गया होगा। कविता कभी कोई युद्ध नहीं छेड़ती जैसी अवधारणा मार्क्सवादी प्रगतिशील साहित्यकारों ने विकसित की। कविता में प्रतिशोध, वर्ग-युद्ध और हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है और यदि है तो वह कृत्रिम व अस्वाभाविक है। वहाँ कला का श्रेष्ठ रूप नहीं है। कविता मनुष्य की मूलभूत प्रवृत्ति और उसके गुण धर्म प्रेम व करुणा से नि:सृत है। इसका वितान व्यापक और काल सापेक्ष है, फ़िर भी वह हज़ारों वर्षों पुरानी सभ्यता में चिर नवीन और सम्मोहक बनी रहती है। मानवता की मातृभाषा बन जाती है और सम्पूर्ण विश्व के भावों से जुड़ जाती है। यह जीवन के उस पक्ष से जुड़ती है, उसे उद्घाटित और आलोकित करती है, जहाँ बड़ा से बड़ा दमनकारी और क्रूर तानाशाह भी बहुत निरीह प्राणी प्रतीत होता है।- मनोज कुमार झा
2️⃣
भाषा में मेरा दुख
व्यक्त नहीं हो सकता
मेरे पास शब्द नहीं रह गये हैं
तुम मुझे छू कर देखो तो शायद समझ सको
मेरा दुख क्या है
ये कैसी पीड़ा है
मुझे ख़त्म करती चली जा रही
तुम अपनी आवाज़ से भी तो
मुझे छू सकते हो
मेरी नब्ज़ पकड़ ले सकते हो
मेरे दर्द की दवा भी कर सकते हो
हो अरूप औ अविकल
मेरे जिस्म और जाँ में समा सकते हो
मेरा दुख हर सकते हो। - मनोज कुमार झा
3️⃣
सूखे पत्ते बिखरे हैं
वृक्ष बदल रहे हैं
अपना रूप
कैसा कायान्तरण है
प्रकृति में जीवन में
नयापन का
अहर्निश उद्यम जारी है
सूखे पत्तों को देख कर
क्यों होता है मन उदास
स्मृतियों के किस वन में
भटकने लगता है…
जीवन तो रंगों से भरा है
रंग निचुड़ गया तो
हरा पत्ता सूख गया
गिर गया डाल से
प्रकृति तो अपना श्रृंगार स्वयं
करती है
फ़िर पत्ते आएंगे डालियों पर
लालिमा में डूबे हरेपन में
घुलते जाएँगे…
मनुष्य का मन हारा-थका
टूटा-बिखरा
बदल नहीं पाता
गहन कालिमा में
गोते लगाने लगता है
यह उसकी कैसी सीमा है…
टूट-बिखर कर फ़िर जो
खड़ा नहीं हुआ वो
तो क्या मनुष्य है
सूखे पत्ते-सा सड़-गल गया
खाद-पानी भी नहीं बन पाया
तो मरण भी निरर्थक है…
आओ, इस पत्र-विहीन नग्न वृक्ष के नीचे
यहाँ छाँव नहीं है अभी
पर यहीं से मिलेगा जीवन-रस
आओ, प्रतीक्षा करो
यह प्रतीक्षा का समय है !
- मनोज कुमार झा

प्रज्ञा मिश्र