एक बार की बात है मैं कक्षा नवी में थी। केंद्रीय विद्यालय हवाईअड्डा दरभंगा की ओर से लखनऊ में आयोजित राष्ट्रीय स्तर की भाषण प्रतियोगिता में हिस्सा लिया था, उस प्रतियोगिता में मैंने द्वितीय स्थान प्राप्त किया था। उसके बाद घमंड प्रवेश कर गया था। अध जल गगरी छलकत जाए। मैं स्कूल में हेड गर्ल भी थी तो दिमाग शायद ज़्यादा ही तुल गया।
अब तो एकदम अपने भी मन में सिक्का बैठ गया था कि बस मैं कहीं भी माइक लेकर शुरू हो सकती हूँ । भले उस प्रतियोगिता की हकीकत यह थी कि विषय का पूरा भाषण मेरे पापा डिक्टेट कराए थे और मैंने बस टुकुर-टुकुर देख सुन लिखा था और स्कूल से बैनर्जी सर पूरा हाव भाव के साथ भाषण याद करवाये थे।
द्वितीय स्थान आने पर सारा कमाल अपना ही लगने लगा था। भूल ही गए थे कि पापा का लिखाया भाषण था और बैनर्जी सर का याद करवाया तरीका।
आगे एक बार किसी दिन हाउस प्रतियोगिता आयोजित हुई। मेरे देने से पहले नाम तय था कि भाषण है तो प्रज्ञा देगी ही अरे नेशनल लेवल पर भी एक जीत कर आई है, इसी का है, एक तो पदक पक्का उस हाउस को गया और हवा पूरी तरह दिमाग पर चढ़ गयी मेरे।
होना क्या था, फ़िल्म थोड़ी है। ऐन मौके पर याद किया हुआ भाषण निल बटे सन्नाटा गया, कोई ओरोजिनल ज्ञान मेरे भीतर थोड़ी था, मेरे भीतर तो बस उतना ही था जितना पापा और अरुण अंकिल लिखा बता देते थे, न याद रहा तो बकलोली जैसी चुप्पी। सारा घमंड ब्लेंक होने पर काफ़ूर हुआ।
इस घटना के बाद अखबार के सम्पादकीय को ध्यान से पढ़ना शूरू किया था अपनी सोच विकसित करने की शुरआत की थी। कोर्स से अन्य किताबें पढ़ीं। चाणक्य नीति पढ़ी, इंग्लिश में पसंद जागृत करने के लिए नैंसी ड्रियू से शुरुआत की, शिव खेड़ा की यू कैन विन तब बहुत ही बढ़ियाँ लगी थी, घर में रखे रॉबर्ट लुडलुम के उपन्यास समझने की कोशिश शुरू की। गीतों और ग़ज़लों को सुनने के समय उसके बोल को समझने का प्रयास शुरू किया। पापा ने “डैडी” जैसी फ़िल्म देखने की प्रेरणा दी और देख कर संवेदनशील दिमाग का विकास हुआ, यह सिलसिला तब से जारी है।
अरे भई पर ये सब ज्ञान दंड पिंड मुंड वगैरह किसी देश का प्रधान सेवक बनने से पहले भुगत कर सीख ले लेना चाहिए, बनने के बाद नहीं। राम राम।
प्रज्ञा मिश्र