मरमांतक पीड़ा में
दुःख भरे संगीत की
धनक उठी
गहरी सांसों का
आलाप लिया और
आंखें छलक उठी
पलकें बंद होकर
किसी नदी का किनारा हो गईं
हौले हौले हवायें
लहरों का सहारा हो गईं
खुली तो जैसे नाव हो गईं
देखती  दूर तक क्षितिज
क्षीतिज में गुम होते होते
कैनवास पर डूबे सूरज
की रेखाएं हो गईं
पनीली आंखें
जिन्हें हर कोई चाह रहा है
जिसे हर कोई निहार रहा है
अपनी ताक़त से अनजान
बेजान तस्वीर हो गई

प्रज्ञा मिश्र

An image from free library

– प्रज्ञा मिश्र

Advertisement