आदिम मनुष्य के पास सबसे पहले उसकी आवश्यक नेचुरल इंस्टिंक्ट थी उनकी पूर्ति हो जाने के पश्चात अन्य चीजों का प्रादुर्भाव उसके जीवन में होता है । मनुष्य ने जब अपने जन्म के बारे में सोचा तो उसने यह अनुमान लगाया कि उसका जन्म किसी पेड़, किसी पक्षी, किसी पशु, पहाड़, नदी,सागर इत्यादि से हुआ है ।

यह उसके गण देवता या टोटेम देवता कहलाए मनुष्य के द्वारा श्रंगार की परंपरा इन्हीं टोटेम देवताओं को और उनके चिन्हों को अपने शरीर पर धारण करने के रूप में हुई।

जैसे भैंसा या बायसन को वह अपना टोटेम मानते थे तो भैंस के सींग अपने सिर पर धारण करते थे । आपने आदिवासियों को सींग धारण किए हुए देखा होगा । उसी तरह वह पेड़, सांप या ऐसे ही किसी देवता के चिन्ह को गुदने के रूप में अपने शरीर पर गुदवाते थे, आज हम जिसे टैटू कहते हैं ।

कालांतर में ऐसे गोदना गुदवाने या सींग, माणिक, मनके, कौड़ी , रंगीन पत्थर जैसी चीजों को श्रृंगार के रूप में धारण करने की परंपरा चल पड़ी। देवता का महत्व वहां गौण हो गया और सुंदर दिखने का महत्व अधिक हो गया ।

जैसे-जैसे सदियां बीती गई वैसे वैसे श्रंगार की सामग्री में नई वस्तुएं जोड़ दी गई । वस्तुतः इनके पीछे कोई विज्ञान नहीं बल्कि मनुष्य का सामान्य मनोविज्ञान था जिसके अंतर्गत वह अपनी प्रजाति में सबसे सुंदर दिखना चाहता है । यह मनोविज्ञान आज भी सजने संवरने , अच्छे कपड़े पहनने और श्रंगार के पीछे काम करता है ।

जब मनुष्य के जीवन में विज्ञान शब्द आया तब उसने जाना कि विज्ञान चूँकि प्रयोग और परिणामों पर आधारित होता है और जिसके कारण दुनिया की प्रगति और विकास हो रहा है वह उसके जीवन में एक अनिवार्य चीज है ।

लेकिन कुछ परंपरा वादियों द्वारा अनजाने में ही विज्ञान को धर्म के विरोध में, परंपराओं के विरोध में खड़ा कर दिया गया। जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए था। क्योंकि हर समय का एक विज्ञान होता है वह कहीं ठहरता नहीं निरंतर प्रयोग करता रहता है और सिद्धांत स्थापित करता है। विज्ञान खुद अपने पुराने सिद्धांतों को खारिज कर आगे बढ़ता है।

लेकिन विज्ञान को धर्म के विरोध में या परंपरा के विरोध में खड़ा करने का नुकसान यह हुआ कि यह माना जाने लगा कि कोई भी धर्म या परंपरा या विश्वास जो विज्ञान सम्मत है वहीं सर्वश्रेष्ठ है या वही उचित है । ऐसा उन लोगों द्वारा हुआ जो विज्ञान को भी मानते थे और परंपराओं को भी मानते थे । लेकिन विज्ञान की तरह पुराने सिद्धांतों और परंपराओं को खारिज नहीं करना चाहते थे ।

इसी आधार पर विज्ञान से श्रृंगार की कला या परंपरा को भी जोड़ दिया गया जबकि इसे जोड़ना बिल्कुल भी आवश्यक नहीं था । जब भी हम सायास किसी धार्मिक विश्वास परंपरा अथवा पद्धति को विज्ञान से जोड़ने की कोशिश करते हैं वह छद्म विज्ञान कहलाता है । हम छद्म विज्ञान और विज्ञान में अंतर न कर पाने के कारण येन केन प्रकारेण मतलब किसी भी तरह से हर बात को विज्ञान से जोड़ना चाहते हैं जबकि यह बिल्कुल भी आवश्यक नहीं है ।

इसी वजह से हम श्रृंगार सामग्री जैसे सिंदूर को ब्लड प्रेशर से जोड़ते हैं, मेहंदी को दिमाग की ठंडक से जोड़ते हैं , गुदने या टैटू को एक्यूपंचर से जोड़ते हैं, काजल को नेत्र ज्योति में वृद्धि से जोड़ते हैं, क्रीम इत्यादि के इस्तेमाल को स्किन के ग्लो से जोड़ते हैं , माथे पर लगाने वाली बिंदी को किसी ब्रेन के सेंटर पॉइंट से जोड़ते हैं, कान में छेद करने को किसी नस के प्रवाह या रक्त प्रवाह से जोड़ते हैं, सुन्नत जैसी चीज को यौन क्षमता में वृद्धि जैसी चीजों को भी श्रृंगार और विज्ञान से जोड़ देते हैं ।

यदि आप गौर करें तो इस तरह की बहुत सारी बातों की निरर्थक था सिद्ध हो जाएगी आप बेहतर जानते हैं कि सोना या चांदी पहनने का शरीर के भीतर की उष्णता या शीतलता से कोई संबंध नहीं होता और नासिका के मिलन स्थल पर बिंदी लगाने से मस्तिष्क शांत नहीं रहता सिंदूर का भी इस से कोई संबंध नहीं है ।

प्राचीन काल में सुंदर दिखने की प्रवृत्ति के अलावा जब मातृसत्ता पर पितृसत्ता ने विजय पाई तब पुरुषों ने स्त्री पर कुछ श्रृंगार आरोपित भी किये जिससे उसका विवाहित होने का पता चले । लेकिन यह अलग अलग धर्मों में अलग अलग तरीके से हुआ ।

कुछ चीजें कबीलाई संस्कृति से भी आई । जब एक कबीला दूसरे कबीले पर आक्रमण करता था तो जीतने वाले कबीले का सरदार दैहिक उपभोग हेतु सबसे सुंदर स्त्री का चयन कर लेता था और उसे अपनी स्त्री के रूप में रिजर्व करने के लिए उसके गले में घोड़े की लगाम डाल देता था और माथे पर रक्त से चिन्ह बना देता था ताकि अन्य कोई उसे वासना की दृष्टि से ना देखें । कालांतर में यह श्रंगार में जुड़ गया ।

यह सामान्य बात है कि हर पुरुष चाहता है कि उसकी स्त्री सुंदर दिखे और स्त्री भी चाहती है कि उसका पुरुष या प्रेमी सुंदर दिखे। यह स्वाभाविक इच्छा है लेकिन इसे धर्म परंपरा या पितृसत्ता से जोड़ना उचित नहीं है । हर व्यक्ति को अपने ढंग से अपने आप को सुंदर प्रदर्शित करने के लिए श्रंगार करना स्वाभाविक है चाहे वह पुरुष हो या स्त्री । आज भी कोई किसी श्रृंगार को विज्ञान सम्मत मानकर श्रृंगार नहीं करता वह केवल सुंदर दिखने के लिए ही करता है।

वस्तुतः श्रंगार को विज्ञान से जोड़ना यह विज्ञान नहीं छद्म विज्ञान है । इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता। यह केवल मन बहलाने वाली बातें हैं या फिर वह बातें जिसके आधार पर हम अपने आप को वैज्ञानिक दृष्टिकोण या आधुनिक दृष्टिकोण का कहलाना पसंद करते हैं ।

हम सब जानते हैं की गोरापन बढ़ाने वाली कितनी भी क्रीम लगा ले आदमी गोरा नहीं होता। कान छिदवाने से आदमी बुद्धिमान नहीं होता । दरअसल श्रंगार को विज्ञान से जोड़ने का अर्थ बाजारवाद से है । श्रृंगार सामग्री के निर्माता अपना अधिक से अधिक सामान बेचना चाहते हैं और वे मनुष्य की इस कमजोरी को जानते हैं कि वह विज्ञान सम्मत बातों को पसंद करता है, इसलिए श्रंगार को विज्ञान से जोड़ते हैं । हम जैसे लोग टीवी पर विज्ञापन देख देख कर और अपने ही लोगों द्वारा फैलाई गई ऐसी झूठी बातों के कारण भ्रमित हो जाते हैं ।

शरद कोकास

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