मैंने आस पास के परिवेश को पढ़ कर जो समझा वह ये है कि अपने आराम और उन्नति के लिए दूसरे को कमज़ोर रखना और उनके भीतर यह पृथक दोयम दबी भावना कूटनीति के तहत बने रहने देना ही जातिवाद है।
ये कोई भी किसी के भी साथ कर सकता है। दर असल ये एक मानसिक अवस्था है जो खुद को सुरक्षित रखने के लिए शोषण के विचार से बढ़ती है, ये किसी भी समाज में है जहां मनुष्य है। यह गलत है बेहद गलत लेकिन ये जायेगी नहीं। यह मनुष्य के अंदर जा विष है सबसे खराब पहलू।
एक बार एक गांव में एक कार्यालय था, वहां विदेशी स्टाइल का पानी फिल्टर लगा था, आप RO कह सकते हैं। वह पानी सबके लिए बराबर उपलब्ध था लेकिन उस फिल्टर से पानी वही पी सकते थे जिनको उसका पेचीदा प्रयोग आता था। आदिवासियों ग्रामीणों के लिए वह फिल्टर अजूबा था, वे लोग जो इससे पानी पी सकते थे वे मांगने वाले को दे देते सिखाते नहीं थे।
इस तरह वर्ग बन गए आश्रितों का वर्ग और जानकारों का वर्ग जो मुस्करा कर पानी दे देता था।
आश्रित प्रसन्न था उसे सीखने की क्या आवश्यकता जानकार दयालु हैं माई बाप हैं सबका देखेंगे जैसा भाव ।
एक दिन रात को वहां का जानकार स्टाफ नाइट ड्यूटी पर था, उसे गैस की समस्या हुई उसने दावा खाई और फिर उसे दावा रिएक्ट कर गई, उसका सारा शरीर लाल पड़ गया था, अचानक ऐसा लग रहा था कि शरीर का नस नस गैस से फट जायेगा। कोई अधिक मदद कहीं नहीं थी।
उसके पास एक ही उपाय था कि वो बहुत सारा पानी पीकर उल्टी कर दे और राहत महसूस करे।
उस व्यक्ति ने उस दिन पहली बार वहां बैठे एक ग्रामीण याचक को उस मशीन का प्रयोग सिखाया, क्योंकि वह स्वयं मशीन प्रयोग नहीं कर सकता था, वह दर्द से बेचैन था, उसे कोई देता तो ही वह पानी पी पाता।
मुश्किल में उसे ज्ञान बांटना पड़ा वह ज्ञान प्रसारित हुआ। उसकी जान भी बची लेकिन अब साफ पानी के स्त्रोत पर उसका एक छत्र राज नहीं था। एक विपत्ति के साथ सिक्का बदल रहा था। ग्रामीण सहजता से सबको सीखा देता था और सभी जानकार होते जाते, साफ पानी के स्त्रोत पर बराबरी का अधिकार प्रयोग करते जाते।
प्रज्ञा मिश्र