पटना में रहते हुए मुझे बचपन में उदास हिंदी किताबें और चित्रकारी अच्छी नहीं लगती थी, मैं उनसे भागती थी। मुझे लगता था मेरे घर में इनका और मकड़ी के जालों का एक ही स्वरूप है, मुझे समझ नहीं आता था कि ये स्लेटी और हल्के पीले रंग की मरे से कागज़ की किताबें इतनी क्यों लिखीं लिवायी और बांट दी गईं हैं।
घर में इतनी सारी किताबों के होने के बावजूद मुझे सिर्फ पिंक एंड पर्पल एलिस इन वंडरलैंड की 3D किताब ही सबसे अच्छी लगती थी। कक्षा तीसरी तक मुझे सारे कवि और लेखक जीवन से उचट चुके से लगते थे। मुझे नहीं समझ आता था ये हवा हमेशा बोझिल क्यों है।
कक्षा चार में दिल्ली होस्टल में रहते हुए मैंने स्कूल मैंगजीन से हिंदू मुस्लिम दंगों पर लिखी किसी की कविता को अपना बना कर किसी और शहर में नाम बटोरने की कोशिश की थी, मैं अपनी हरकत पर कुछ तीस साल बाद जाकर बेहद शर्मिंदा हुई थी और इसके बारे में लिखा भी था।
कक्षा छह के बाद से मैंने भी अपनी रातों में उदास होने के बाद डायरी में कुछ लिखना शुरू किया था। बचपन की स्ट्रक्चर विहीन उदासी को, अपना उद्देश्य मालूम नहीं होता इसलिए वो ऐसी कोई भी कला उत्पन्न नहीं कर पाती जिसका जनरुचि में मूल्य हो।
आज सालों बाद मैं ये समझती हूं उदासी एक स्ट्रक्चर्ड कला है, इसका प्रयोग किया जाता है, एक तरीके से उदास रहा जाता है। कब कितना और कैसे ये अपना अपना हुनर है।
किताबों की तरफ देखती हूं तो अब मेरे पास हार्ड बाउंड, पेपर बैक, बढ़िया कागज़ की किताबें हैं , जिनपर इठलाया जा सकता है। लेकिन, मैं बहुत शिद्दत से बचपन के घर की वो अलमारी और सारी पुरानी किताबें याद करती हूं जो शायद एक वक्त जीवन में मौजूद कोहिनूर थीं।
प्रज्ञा मिश्र
6/मार्च/2023