⚫ फूफा जी को श्रद्धांजलि
(संस्मरण)
शनिवार 25 मार्च 2023 को मेरे प्यारे फूफा जी स्वर्गीय श्री आशुतोष शंकर मिश्र जी की दूसरी बरसी है। वे जमशेदपुर के वरिष्ठ अधिवक्ता थे।
यही तो दिन थे, कोराेना की दूसरी लहर अचानक होली के बाद कहर के जैसी आई थी साल 2021 में। पापा से पता लगा बुआ जी जमशेदपुर में कोविड ग्रस्त पीसा जी को लेकर नितांत अकेली पड़ गईं हैं , हालात का अंदाज़ा तो था मुझे क्योंकि मैं सोशल मीडिया में बिलखते परिवारों को देख रही थी, बहुत लोगों से बात कर रही थी, कितनों को जैसी मदद चाहिए थी वो अपनी समझ के अनुसार देने का प्रयास कर रही थी, और अचानक यह उदासी एकदम मेरे सबसे करीबी घेरे में ही प्रवेश कर जायेगी यह कहां मालूम था मुझे।
अभी तो फूफा जी को लेकर बुआ जी घर से निकली थीं और मुंबई से हम लोग भी टेलीफोन पर भरसक प्रयास करते हुए कॉरडिनेशन कर रहे थे की सांस सांस कीमती हो रही थी, एक बार बीच में बड़ी थकी परेशान आवाज़ में जमशेदपुर किसी अस्पताल के कोविड यूनिट के बाहर बैठे पीसा जी से बात भी हुई थी, अभी चले, अभी बैठे , अभी लेटे और जाने ऐसा क्या हुआ की एकदम से रवाना हो गए। एक दम से आंधी के बाद का सन्नाटा था, जिसमें नहीं पता कि कैसे बिहेव किया जाना चाहिए, क्या कहा जाना चाहिए किस्से कहा जाना चाहिए. उस बीच में खुद कोवीड ग्रस्त बुआ जी ने यह सच कैसे स्वीकारा ये सिर्फ वे ही समझती हैं।
एक बेहतरीन इंसान मेरे पीसा जी (फूफा जी) स्वाभाविक रूप से हंसमुख व्यक्ति थे, और अपनी गंभीरता का प्रदर्शन कभी किसी बच्चे पर नहीं करते जैसा कि उस दौर का अधिकांश अभिभावक वर्ग करता। वे एक बेहतरीन पिता थे। आज उनके बच्चे कला और विज्ञान दोनों में पारंगत हैं ये उनकी और बुआ जी की परवरिश के हुनर का प्रत्यक्ष उदाहरण है।
पीसा जी बहुत ही ग्रासरूट लेवल पर जा कर किसी भी व्यक्ति से जुड़ते और हर तबके का आदमी उनका मुरीद हो जाता। उनकी बातों की कॉमिक टाइमिंग जेनेटिकली फुफेरे बड़े भाई गौरव मिश्र में आई है , अब तो भाई भी वैसे ही लगते हैं तो उनके चेहरे में फूफा जी ही दिखाई देते हैं।
आज स्टोरी टेलिंग दिवस (२० मार्च) पर पीसा जी को याद करते हुए मैं श्रद्धांजलि अर्पित करती हूं, क्योंकि वे हम भाई बहनों के पहले कहानी वाचक थे जिनकी सुनाई रोचक कहानियां मुझे हमेशा याद रहीं। हमारा परिवार किसी भी छुट्टी या आयोजन के अवसर पर जब भी जुटा करता, वे घर के बच्चों को पूर्णिया जाने आने के बीच की रोड यात्रा की घटनाएं एवम रांची जमशेदपुर की रोड यात्रा की घटनाएं खूब सुनाते और हम सभी रात्रि में सोने से ठीक पहले उनकी बातें सुनते ठंडक कंपन और डर अपने भीतर महसूस करते उस भाव का आनंद उसमें उठती खिलखिलाहटें समय के उस कमरे में कहीं बंद हो गई है। उसकी चाभी भी खो गई है।
बहुत सारी बातें साथ साथ चल रही हैं, अब मेरा अपना जीवन अब बहुत अलग ढर्रे में बढ़ चला है लेकिन यकीनन यह बात की अब वे नहीं मिलेंगे मुझे उदास कर जाती है क्योंकि वात्साप या फेसबुक के माध्यम से उनसे बात हो जाया करती थी, वे मेरे राजनैतिक विचारों और कविताओं पर भी अपनी प्रतिक्रिया रखते थे, मेरे जीवन में उनकी मौजूदगी दर्ज थी।
मैं अक्सर सोचा करती थी कि एक बार जिस दिवाली गई थी उस दिवाली मेरी बहन गरिमा ने घरौंदा बनाया था और दूसरी बार जिस दिवाली गई थी बहन गरिमा ने अपनी सुगढ़ उंगलियों से अहाते के स्लेटी ठंडे फर्श पर गणपति के अरिपन उकेरे थे मैं कितना मोहित हुई थी उसकी चित्र कला पर, उस दूसरी दिवाली के बाद फिर जाना नहीं हुआ।
बारवीं में रांची की पढ़ाई पूरी करने के बाद फिर जमशेदपुर वाले घर पर कभी न जा पाना मुझे विचित्र संयोग सा लगता रहा कि कैसे बचपन का हिस्सा जीते जी संस्मरण बन जाता है।
पीसा जी से आखिरी बार मेरे भाई सात्विक के यज्ञोपवित संस्कार में देवघर पर मिली थी, उन्होंने सफेद कुर्ता पजामा और कोल्हापुरी भूरी चप्पल पहनी थी लेकिन पहले से थोड़ा वजन कम रहा था उनका। २०१० में अपनी शादी के बाद पहली बार उनसे मिली थी २०१८ में, यानी आठ साल बाद और कोरोना की दूसरी विकराल लहर ने उनको अपना ग्रास बना ही लिया था साल २०२१ में।
मैंने वो कविताएं पढ़ीं जो कभी उनके और बुआ जी के लिए लिखी थी और मैं बहुत विचलित हुई, फिर बातें बह गईं। अब सब कुछ पूर्व वत बहाव में है लेकिन एक धार जो ज़मीन के एक हिस्से तक आकर भूमिगत हो गई उसे मेरी कलम खोजती है।
मुझे इन संस्मरणों में जीना ठीक ही लगता है, मेरे जीवन के एक महत्त्वपूर्ण हिस्से को मैं ठीक ठीक वैसा नहीं देख पाई जैसा उसे होना चाहिए था इसलिए हर अधूरी यात्रा से मैं प्रेम रखती हूं।
पीसा जी(फूफा जी) जहां कहीं भी हैं, कोरोना के दिनों में उनके प्रति मेरी सच्ची भावानाओं के साक्षी रहें, एवम उनके जीवन और उसके बाद मुझसे जो भी भूल हुई उसके लिए क्षमा करते हुए प्रेम पूर्वक शुभाशीष देते रहें।
प्रज्ञा मिश्र