मेरी कितनी यादें जुड़ी हैं दरभंगा से। 1997 में पापा बाड़मेर से ट्रांसफर होकर दरभंगा आए, पापा हमेशा बिहार में रहना चाहते थे ताकि पूर्णियां और दादी मां दादा जी के ज़रूरत के समय हमेशा आस पास रह सकें।
दरभंगा में पापा का ट्रांसफर दो बार हुआ, पहली बार में मैं क्लास 6 में थी और केंद्रीय विद्यालय हवाई अड्डा में मेरा दाखिला हुआ था। दूसरी बार जब ट्रांसफर हुआ हुआ तब आकाशवाणी कॉलोनी से ही मेरा विवाह आयोजन संपन्न हुआ था। मैं अब नौकरी करने लगी थी।
दिग्घी और हराही पोखर के आस पास हम बहुत सालों तक रहे। बाड़मेर में आकाशवाणी परिसर का अनुभव बहुत अच्छा था वहां की तुलना में मेरे कक्षा छः के दिमाग को दरभंगा बहुत उलझा और बहुत भीड़ भाड़ भरा लगता, मुझे बोहोत अच्छा नहीं लगता था यहां आकार।
स्कूल में भी शुरआत में ही मेरा नाम पता नहीं क्यों जेट फाइटर भी रख दिया गया था तो मैं बहुत घुला घुला महसूस नहीं करती थी।
धीरे धीरे चूंकि कहीं और तो जाना नहीं था और उम्र भी मेरी कम थी मैंने एडजस्ट करना सीखा, लेकिन सीखना क्या था सांस लेना सीखा थोड़ी जाता है वो तो होता रहता है।
बाद में स्कूल और शहर दोनो से दोस्ती हो गई। मुझे दरभंगा में दो जगह सबसे अच्छी लगती थी। श्यामा माई मंदिर परिसर और टावर चौक।
श्यामा माई मंदिर परिसर में बहुत जगह घूम घूम कर ठंडक भरे क्षेत्र में घूमना होता था, वह दरभंगा राज में था तो राजा के घर में हूं वाली अनुभूति होती थी और मनोकामना मंदिर बहुत ही प्यारा सा था जिसमें छोटे छोटे दरवाजे में फिट होकर हनुमान जी को छू कर आना अच्छा लगता था।
यहां नारियल और बेसन लड्डू प्रसाद भी अच्छे मिलते थे।
टावर चौक पर हम लोग परिवार नाम की दुकान से किराना लेने जाते थे, कॉफी हाउस में स्पेशल डोसा खाते थे उसमें काजू भरपूर मात्रा में होती थी और चटनी भी खूब स्वादिष्ट होती थी। तीन तरह की चटनी और बढ़िया गाढ़ा सांभर मिलता था। टावर चौक का “राजस्थान” होटल याद है। वहां नए साल में डिनर करने जाते थे। मीठा पान खाते थे। दिवाली में खूब मेगा साइज़ मोतीचूर लड्डू मिलते थे उधर।
धारीवाल टेलर से मैं सलवार सूट सिलाती थी। मैने दरभंगा आने के बाद से ही जींस और फ्रॉक पहनना बंद कर दिया था, स्कूल में यूं तो क्लास 9 में सलवार सूट आया मेरे जीवन में क्लास 6 में ही आ गया था।
हमने सरस्वती पूजा बहुत वृहत मनाई दरभंगा प्रवास के दिनों में। मिर्जापुर में रहते हुए हमारे मकान मालिक श्री पूरवे अंकल के बेड़े बेटे तांडव स्तोत्र पढ़ते थे, जिसे बाद में संस्कार टी वी से सुन सुन कर धुन मैने भी याद की थी।
मिर्ज़ापुर में टेस्टी स्वीट्स वाले चौक से रिक्शा लेती थी तो नाक के सिधाई में टावर चौक पर ही रुकता था। एक बार की बात है मैं दादी मां के साथ रिक्शे से जा रही थी, रास्ता इतना ऊबड़ खाबड़ था की उन्होंने हंसते हंसते और थोड़ा खीझते हुए मैथिली में कुछ कहावत कही थी जिसका मतलब होता बच्चे की डिलीवरी रास्ते में ही हो जायेगी अगर इसपर कोई प्रेगनेंट महिला जायेगी तो। तब मैं भी हंस दी पर मतलब तो 2012 में समझ आया जब मैं बोरीवली से सीप्ज अंधेरी जाती और ऑटो का एक एक बंप समझ आता था। मुझे तब टावर चौक जाते अपनी दादी का मज़ाक याद आ जाता था।
टावर चौक जाने के रास्ते में बायीं तरफ बंगला स्कूल, मकान मालिक पूर्वे अंकल , कृष्ण कुमार अंकल के पुराने वाले घर की गली और दायीं तरफ दुबएन्दू बैनर्जी सर का इंग्लिश ट्यूशन वाला बड़ा गेट गुजरता जाता था। ऊबड़ खाबड़ रास्ता बाद में मेरे ही सामने सीमेंटेड सड़क भी बना। लेकिन 2002 में फिर मैंने दरभंगा छोड़ दिया फिर कभी ना लौटने के लिए। आश्चर्य होता है कि मैं बहुत सालों तक दसवीं के अपने किसी भी मित्र के संपर्क में ज्यादा नहीं रह पाई परीक्षा के बाद शायद उस समय मोबाइल या फेसबुक आदि नहीं थी इस वजह से, और फिर मैं रांची शिफ्ट हो गई।
बहुत बाद में जब सबसे मिलना हुआ तो मोदी जी के कारण अधिकतर पुराने दोस्तों से लड़ाई भी हो गई और अब भी बात चीत वैसी नहीं है।
पोस्ट के साथ जो तस्वीर है वो साल 2020 में जनता कर्फ्यू के दिन मणिकांत अंकल ने यह तस्वीर साझा की थी।
जगह और गलियों के नाम कितना सही सही याद है अब यह मुझे नहीं पता। दरभंगा में बहुत परिवार वाले रहते हैं, वहाँ फिर जाना होगा ही।
जाऊंगी तो ननद गीता दी और मणिकांत अंकल के घर जाऊंगी ही । आम का मौसम में जाना हो ऐसी ही कोशिश करूंगी। यह बात मैं हर साल लिखती हूं।
यह भी सोचती हूं कि जिन मणिकांत अंकल के आमक गाछी में मीठा बिज्जू , जर्दा आम सब का आनंद लिया जायेगा, अभिज्ञान और अंशुमन को सब दिखाया जायेगा। लेकिन पेड़ के नीचे एक बाल्टी भर कर आम वो दोनो कहां मेरी तरह मजे उड़ा पाएंगे आदत अनुसार उनके दिमाग को लगता है एक आम काफी है।
शुभंकरपुर में काली मैया को प्रणाम करना है।
अगर गीता दीदी को भी साथ चलने कहूंगी तो पहले गीता दीदी बोलेंगी
” भक्क प्राची हम जाएंगे सो अच्छा नहीं लगता है तुम चली जाओ, है न” ।
लेकिन मैं उनको साथ लेकर ही जाऊंगी, मंदिर जाने के नाम पे कोई मना थोड़ी करता है।
वहीं बचपन को दोस्त निवेदिता ( अब डॉ निवेदिता) के मम्मी पापा से भी मिलना होगा।
साधना कहेगी की प्रज्ञा लक्ष्मी सागर और रेलवे कॉलोनी भी घूम आना । ए एन झा सर से मिल आना, हवाई अड्डा में केंद्रीय विद्यालय का नया भव्य बिल्डिंग बना है देख आना।
लेकिन मैं मन ही मन सोचने लगूंगी की नहीं वो मेरा स्कूल नहीं है। मेरा स्कूल अब कहीं नहीं है और मैं नहीं जाऊंगी। मेरा स्कूल एस्बेस्टस की छत वाले एयरफोर्स का क्वार्टर था जिसमें आगे एक हैंडपम्प लगा था,बगल में एक बगीचा, हर तरफ खेत मैदान था अब वैसा कुछ भी नहीं होगा सुगठित नई इमारत में।
ये समय वापिस पुराने दौर में लौटे और मैं दरभंगा न सही कम से कम दादा जी से मिलने पूर्णियाँ तो ज़रूर चली जाऊं।
Pragya Mishra