⚫ आपके दिमाग में चल क्या रहा है?
सुनो फेसबुक!
मेरे दिमाग में अचानक अचानक बहुत कुछ चल रहा है, कभी वर्तमान, कभी संस्मरण कभी, द्वंद, कभी अकारण कोलाहल, कभी सकारात्मक विचार, कभी नकारात्मक, कभी लोग क्या कहेंगे, कभी किसने कहा, किससे कहा, किसको कहा, कहा तो क्यों कहा इत्यादि।
अब जैसे देखो ना, मेरी हिंदी, बोलने का लहज़ा, रहन सहन कई बातें लोगों को बहुत बेसिक, आउटडेटेड और अप्रासंगिक लगे या लगते हैं, मुझे भी अपने लिए ऐसा लगता है कि मैं समय के एक फ्रेम में फ्रीज़ हो चुकी हूं जहां मेरे दिमाग को सबसे अच्छा लगता है।
आगे न बढ़ पाना और मॉडर्न स्लैंग या तौर तरीकों को अपने भीतर लाने की आवश्यकता नहीं लगी और हो भी नहीं पाता है, बिहारी में सच कहूं तो “अनटेटल” लगता है।
बोलने में दो तरीके की हूं, घर पर बिहारी हूं बाहर मैं मैं कर के बात करती हूं।
व्यवहार में ओल्ड स्कूल रह गई, जिसके कारण कॉलेज के बाद से आज तक मज़ाक उड़ता रहा है। मेरी कोई ब्रैंड चॉइस नहीं है, खाने पीने की कोई स्पेशल पसंद नहीं है कि ऐसा ही हो, कोई भी चीज़ या पहनावा मुझे डिफाइन नहीं कर रहा की मैं ऐसा ही पहन रही आदि। मैं कुछ भी टी वी शो देख लेती हूं, मेरी मूवी की भी कोई इंटेलिजेंट लोगों वाली चॉइस नहीं है मुझे सब अच्छा लग जाता है।
एक तरह से देखूं तो मैं अपना एक निश्चित व्यक्तित्व नहीं बना पाई कि मैं ऐसी ऐसी ही हूं, या ये बातें मुझे डिफाइन करती हैं। लगता है मुझे तो सब ट्राई करते करते ही बुड्ढी हो जाना है। साथ ही न मैं ये तय कर पाई कि वो एक चीज़ क्या है जो मुझे करनी है, या वो एक मकसद क्या है मेरा जीवन से। इतना सबकुछ एक साथ शुरू कर देती हूं कि अपनी सांस पर आफत आने लगती है।
ये भी लगता रहा कि सबसे बुरी बात हो गई कि अच्छी लड़की वाला कांसेप्ट पकड़ लिया। क्या होता है अच्छी लड़की होना। अच्छा बने रहने का एक स्वांग ओढ़ लिया जाता है। जब जब स्वांग टूटा तो बहुत बुरा बन के टूटा जो मैं बिल्कुल नहीं थी, जाने कहां से अलग समय पर अलग अलग व्यक्तित्व उभर आते जो हर व्यक्ति को उसके पसंद नापसंद के हिसाब से नजर आते। असल कौन सा व्यक्तित्व है यह सोचती हूं तो जो आलसी सा पसरा हुआ है, सब कुछ कल पर टालने वाला व्यक्तित्व है वही असली है, सबसे असली।
पर अपने बारे में एक बड़ा सच जो मालूम पड़ा है वो ये कि नल में हर समय पानी न आए इस बात को छोड़ कर और किसी बात से बहुत परेशानी कभी नहीं रही है। हर समय पानी उपलब्ध रहना और साफ पानी उपलब्ध रहना सबसे बड़े सहूलियतों में से लगते हैं। पानी न रहे तो मेरा व्यवहार और स्वभाव बड़ा बुरा होने लगता है, मैं मैं नहीं रहती।
धर्म के बारे में भी सोचती हूं तो मुझे महसूस होता है मुझे किसी धर्म के लोगों से दिक्कत नहीं है। जानकारी के लिहाज से सबसे मिलने बात करने का मन करता रहा। न ही मुझे कभी अपना धर्म छोड़ने का मन किया ,बल्कि इसमें मुझे सबसे अच्छे अनुभव मिले हैं, मैं इसके गहन अध्ययन में एक कदम रोज़ भीतर उतरती हूं।
मुझे यह भी महसूस होता है कि किसी से पूरी तरह नफरत भी हो जाए तो ये याद हम रख सकते हैं कि कोई न कोई तो है जो इसे पसंद करता है यानी इसमें कोई अच्छी बात तो अवश्य है। किसी से शत्रुता होने लगती है तो माफी मांग कर दूर होना ठीक लगता है, मुझमे तो इतनी भी हिम्मत नहीं है कि लड़ाई कर के उसपर अडिग रहूं क्योंकि लगता है कर्म खराब हुए तो घाटा मेरा ही है तो माफी मांगो मामला निपटाओ और दूर हो जाओ।
हां जब मेरी बुद्धि विकसित नहीं थी तब उन दिनों में यानी कॉलेज के दिनों मुझे आरक्षण नहीं पसंद आया था, वो भी सिर्फ एक दिन के लिए , हुआ ये था कि एक दीदी जो बहुत आराम से एब्रॉड जाति, जब जगह घूमती और आराम से महंगे जीवन शैली में रहती उनकी फॉर्म की फीस बहुत सस्ती थी और मैं बहुत हिसाब से खर्च कर के दिल्ली में जीती मेरा अलग अलग फॉर्म में हर जगह इतनी फीस दे देकर दिमाग खराब होता था और जब मुझे पता चला कि वो वाली दीदी की फीस तो इतना कम लगी तो मुझे बहुत गुस्सा आया था आरक्षण पर। लेकिन बाद में बहुत डिबेट्स सुनी तो लगा जाने दो जेनेटिक हीलिंग और मेंटल upliftment होने में पीढियां बीत जाती हैं जो अत्याचार हुआ है वो अक्षम्य है। लेकिन आरक्षण का कोई लॉजिक फिर भी नहीं लगा था क्योंकि कितने लोग गरीब जो वो दीदी के ही कैटेगरी के आते उनको कोई सुविधा कभी नहीं मिलती।
तो ये है मेरा दिमाग जो एक बार में इस पोस्ट की तरह क्या क्या सोचता रहता है। तब मैं मेडिटेशन से इस शांत करती हूं और ऐसे ही कुछ से कुछ सोचते रहती हूं। अब जैसे मुझे लग रहा है कि ये कोई निबंध तो है नहीं की किसी एक विषय पर हो और कोहेरेंट हो और एक शुरुआत हो एक शरीर हो एक उपसंहार हो, ये तो मेरे दिमाग के सोच की उपज पोस्ट है, तो वैसी ही होगी जैसा कि दिमाग दौड़ रहा।
तो दौड़ते दौड़ते दिमाग अब यह सोच रहा कि कार चलाना सीख जाऊंगी तो मैं थोड़ी स्मार्ट हो जाऊंगी, यही करना है। 😐
प्रज्ञा मिश्र
