यूँ ही घर के किसी कोने में पड़े उठ खड़े होने की इच्छा से ठीक पहले नींद आती है कि बस अब सो ही जाना चाहिए या कि खो ही जाना चाहिए । एक उम्र के बाद कौन रोक लेगा भटक जाने से अब तो टोकते भी नहीं बड़े, उन्हें चिंता है साथ बने रहने की। फिर भी कुछ है जो बचा लेता है हमें अपने ही आपसे। कभी किसी दोस्त की कोई बात , कभी ईमानदारी से जिये गए ज़िन्दगी के दिन , किसी की मोहब्बत, किसी का साथ, किसी बच्चे का चेहरा, कभी उस टीचर की बात जो माँ जैसा हक जता कर कही गयी थी।
कभी कभी उबरने की खुद को साबित करने की जद्दोजहद । सुधारने के लिए अपनी गलतियां जिनके बारे में कोई जानता नहीं। उठ जाने के लिए देखे गए बुरे सपने से क्योंकि मैं किसी और दुनिया में हूँ। वही दुनिया हरी है, हकीकत है।
बाहर निकलो बाहर निकलो इस डोरमिटरी से यहाँ दस साल का बच्चा खुद से छः साल छोटे बच्चे को इसलिए इतनी ज़ोर से थप्पड़ मार देगा की उसने ए बी सी डी बताये तरीके से नहीं लिखा था। डर है मूँह से निकलते खून को देख कर और समझ से परे की अब क्या होगा कब तक होगा और किस हद तक होगा डर कर अपना ही शरीर रगड़ रगड़ के नहाना की ये झूठ ये मक्कारी ये निकलते कीड़े, ये उड़ती सफेद पोशाक , पानी मे सड़ रहे कपड़े, आत्मा से आती बदबू, कमरे की सड़ाध , मेरे वजूद का हिस्सा नहीं रहेंगे, नहीं रहेंगे।
आधा जला पन्ना
किताब का
रखना पड़ेगा सहेज
कई दिनों तक।
अभिन्न अंग जो ठहरा,
जाने क्या दर्ज हो
कौन सी बात
जो सालती रहेगी
याददाश्त के जाने तक ।
प्रज्ञा